कवि ने नहीं रखी है जिसे पकड़कर हम इस बात का विचार करें कि उस विशेषता का निर्वाह अनेक अवसरों पर हुआ है या नहीं। इन्हें हम प्रेमी और पति पत्नी के रूप में ही देखते हैं, अपनी किसी व्यक्तिगत विशेषता का परिचय देते नहीं पाते। अतः इनके संबंध में चरित्रनिर्वाह का एक प्रकार से प्रश्न ही नहीं रह जाता। राजा रत्नसेन में हम जो कष्टसहिष्णता, धीरता या साहस इत्यादि देखते हैं वे कोई व्यक्तिगत विशिष्ट लक्षण नहीं जान पड़ते, बल्कि सब सच्चे प्रेमियों का आदर्श पूरा करते पाए जाते हैं। वियोग या विपत्ति की दशा में हम उसी रत्नसेन को प्रात्मघात करने को तैयार देखते हैं। पद्मावती भी चित्तौर आने से पहले तक तो आदर्श प्रेमिका के रूप में दिखाई पड़ती है और चित्तौर आने पर उसके सतीत्व का विकास प्रारंभ होता है। नागमती को भी हम सामान्य स्त्रीस्वभाव से युक्त पतिपरायण हिंदू स्त्री के रूप में देखते हैं। आदि से अंत तक चलनेवाले इन तीनों पात्रों का व्यवहार या तो किसी आदर्श की पूर्ति करता है या किसी वर्ग की सामान्य प्रवृत्ति का परिचय कराता है।
चरित्र का विधान चार रूपों में हो सकता है--(१) आदर्श रूप में, (२) जातिस्वभाव के रूप में, (३) व्यक्तिस्वभाव के रूप में, और (४) सामान्य स्वभाव के रूप में। अतः जिन पात्रों के चरित्र का हम विवेचन करेंगे उनके संबंध में पहले यह देखेंगे कि उनके चरित्रों का चित्रण किन किन रूपों में हुआ है। जो चार रूप पीछे कहे गए हैं, उनमें सामान्य स्वरूप का चित्रण तो चरित्रचित्रण के अंतर्गत नहीं वह सामान्य प्रकृति वर्णन के अंतर्गत है, जिसे पुराने ढंग के आलंकारिक 'स्वभावोक्ति' कहेंगे। आदर्श चित्रण के संबंध में एक बात ध्यान देने की यह है कि जायसी का आदर्श चित्रण एकदेशव्यापी है। तुलसीदास जी के समान किसी सर्वांगपूर्ण आदर्श की प्रतिष्ठा का प्रयत्न उन्होंने नहीं किया है। रत्नसेन प्रेम का प्रादर्श है, गोरा बादल वीरता के आदर्श हैं, पर एक साथ ही शक्ति, वीरता, दया, क्षमा, शील, सौंदर्य और विनय इत्यादि सबका कोई एक प्रादर्श जायसी के पात्रों में नहीं है। गोस्वामी जी का लक्ष्य था मनुष्यत्व के सर्वतोमुख उत्कर्ष द्वारा भगवान के लोकपालक स्वरूप का आभास देना। जायसी का लक्ष्य था प्रेम का वह उत्कर्ष दिखाना जिसके द्वारा साधक अपने विशेष अभीष्ट की सिद्धि प्राप्त कर सकता है। रत्नसेन प्रेममार्ग के भीतर तो अपना सुखभोग क्या प्राण तक त्याग करने को तैयार है; पर वह ऐसा नहीं है कि प्रेममार्ग के बाहर भी उसे द्रव्य आदि का लोभ कभी स्पर्श न कर सके। प्रेममार्ग के भीतर तो उसे लड़ाई भिड़ाई अच्छी नहीं लगती, अपने साथियों के कहने पर भी वह गंधर्वसेन की सेना से लड़ना नहीं चाहता, पर अलाउद्दीन का पत्र पढ़कर वह युद्ध के उत्साह से पूर्ण हो जाता है। इसी प्रकार पद्मावती को देखिए जहाँ तक रत्नसेन से संबंध है वहाँ तक वह त्याग की मूर्ति है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि सपत्नी के प्रति स्वप्न में भी वह ईर्ष्या का भाव नहीं रखती।
यह तो स्पष्ट ही है कि कथा का नायक रत्नसेन और नायिका पद्मावती है। अतः पहले इन्हीं दोनों चरित्रों को लेते हैं-
रत्नसेन–नायक होने से प्राचीन पद्धति के अनुसार रत्नसेन के चरित्र