में आदर्श की प्रधानता है। यद्यपि उसके व्यक्तिगत स्वभाव (जैसे, बुद्धि की अतत्परता, अदूरदर्शिता) तथा जातिगत स्वभाव (जैसे राजपूतों की प्रतिकारवासना) की भी कुछ झलक मिलती है, पर प्रधानता आदर्शप्रतिष्ठापक व्यवहारों की ही है। आदर्श प्रेम का है, और गहरे सच्चे प्रेम का। अतः उस प्रबल प्रेम के आवेग में जो कुछ करणीय अकरणीय रत्नसेन ने भी किया है उसका विचार साधारण कर्मनीति की दृष्टि से न करना चाहिए। प्रसिद्ध पाश्चात्य भाववेत्ता मनोविज्ञानी शैंड ने बहुत ठीक कहा है—प्रत्येक भाव (रति, शोक, जुगुप्सा आदि) के कुछ अपने निज के गुण होते हैं, जिनमें से लोकनीति के अनुसार कुछ सद्गुण कहे जाते हैं और कुछ दुर्गुण—जो उस भाव की लक्ष्यपूर्ति के लिये आवश्यक होते हैं।' इन गुणों का विकार भावोत्कर्ष की दृष्टि से करना चाहिए, लोकनीति की दृष्टि से नहीं। रत्नसेन अपनी विवाहिता पत्नी नागमती की प्रीति का कुछ विचार न करके घर से निकल पड़ता है और सिंहलगढ़ के भीतर चोरों की तरह सेंध देकर घुसना चाहता है पहली बात चाहे हिंदुओं में प्रचलित रीति के कारण बुरी न लगे पर दूसरी बात लोकदृष्टि में निंद्य अवश्य जान पड़ेगी। बात बात में अपने सदाचार का दंभ दिखानेवाले तो इसे 'बहुत बुरी बात' कहेंगे। पर प्रेममार्ग की नीति जाननेवाले चोरी से गढ़ में घुसनेवाले रत्नसेन को कभी चोर न कहेंगे। वे इस बात का विचार करेंगे कि वह प्रेम के लक्ष्य से कहीं च्युत तो नहीं हुआ। उनकी व्यवस्था के अनुसार रत्नसेन का आचरण उस समय निंदनीय होता जब वह अप्सरा के वेश में हुई पार्वती और लक्ष्मी के रूपजाल और बातों में फँसकर मार्गभ्रष्ट हो जाता। पर उस परीक्षा में वह पूरा उतरा।
उपर्युक्त विवेचन का तात्पर्य यह है कि प्रेम के साधनकाल में रत्नसेन में जो साहस, कष्टसहिष्णुता, नम्रता, कोमलता, त्याग आदि गुण तथा अधीरता, दुराग्रह और चौर्य आदि दुर्गुण दिखाई पड़ते हैं वे प्रेमजन्य हैं, वे स्वतंत्र गुण या दोष नहीं माने जा सकते। यदि ये बातें प्रेमपथ के अतिरिक्त जीवन के दूसरे व्यवहारों में भी दिखाई गई होतीं तो इन्हें हम रत्नसेन के व्यक्तिगत स्वभाव के अंतर्गत ले सकते।
इसी प्रकार सिंहलद्वीप से लौटते समय रत्नसेन का जो अर्थलोभ कवि ने दिखाया है वह भी रत्नसेन के व्यक्तिगत स्वभाव के अंतर्गत नहीं आता। किसी विशेष अवसर पर असाधारण सामग्री के प्रति लोभ प्रकट करते देख हम किसी को लोभी नहीं कह सकते। हाँ, उस असाधारण सामग्री के तिरस्कार से उसे निर्लोभ अवश्य कह सकते हैं। दोनों अवस्था में अंतर यह है कि एक में लोभ करना साधारण बात है और दूसरी में त्याग करना साधारण बात है। किसी
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