जिस राजा रत्नसेन के यहाँ वह जीवन भर रहा, उसके प्रति कृतज्ञता का कुछ भी भाव उसके हृदय में हम नहीं पाते। देश से निकाले जाने को आज्ञा होते ही उसे बदला लेने की धुन हुई। पद्मिनी ने अत्यंत अमूल्य दान देकर उसे संतुष्ट करना चाहा पर उस कृपा का उसपर उलटा प्रभाव पड़ा। पहले तो अपने स्वामी की पत्नी को बुरे भाव से देख उसने घोर अविवेक का परिचय दिया फिर उसके हृदय में हिंसावृत्ति और प्रतिकारवासना के साथ ही साथ लोभ का उदय हुआ। वह सोचने लगा कि दिल्ली का बादशाह अलाउद्दीन अत्यंत प्रबल और लंपट है, उसके यहाँ चलकर पद्मिनी के रूप का वर्णन करूँ तो वह चित्तौर पर अवश्य चढाई कर देगा जिससे मेरा बदला भी चुक जायगा और धन भी बहुत प्राप्त होगा। निर्लज्ज भी वह परले सिरे का दिखाई पड़ता है। जिस स्वामी के साथ उसने इतनी कृतघ्नता की, चित्तौरगढ़ के भीतर बादशाह के साथ जाकर, उसको मुँह दिखाते उसे कुछ भी लज्जा न पाई। अपनी नीचता की हद को वह उस समय पहुँचता है जब राजा रत्नसेन के गढ़ के बाहर निकलने पर वह उन्हें बंदी करने का इशारा करता है।
सारांश यह कि अहंकार, अविवेक, कृतघ्नता, लोभ, निर्लज्जता और हिंसा द्वारा ही उसका हृदय संघटित ठहरता है। यदि पद्मावत के कथानक की रचना सदसत् के लौकिक परिणाम की दृष्टि से की गई होती तो राघव का परिणाम अत्यंत भयंकर दिखाया गया होता। पर कवि ने उसके परिणाम की कुछ भी चर्चा नहीं की है।
गोरा बादल--क्षत्रिय वीरता के ये दो अत्यंत निर्मल आदर्श जायसी ने सामने रखे हैं। अबलाओं की रक्षा से जो माधर्य योरप के मध्य युग के नाइटों की वीरता में दिखाई पड़ता था उसकी झलक के साथ स्वामिभक्ति का अपूर्व गौरव इनकी वीरता में देख मन मुग्ध हो जाता है। जायसी की अंतर्दृष्टि धन्य है जिसने 'भारत के इस लोकरंजनकारी क्षात्रतेज को पहचाना।
पहले हम इन दोनों वीरों के खरेपन, दूरदर्शिता, आत्मसंमान और स्वामि' भक्ति, इन व्यक्तिगत गुणों की ओर ध्यान देते हैं। गढ़ के भीतर बादशाह को घूमते देख इनसे न रहा गया। इन्हें बादशाह के रंग ढंग से छल का संदेह हुआ और इन्होंने राजा को तुरंत सावधान किया। जब राजा ने इनकी बात न मानो तब ये आत्मसंमान के विचार से रूठकर घर बैठ रहे। मंत्रणा के कर्तव्य से मक्त होकर ये शस्त्रग्रहण के कर्तव्य का अवसर देखने लगे। वह अवसर भी पाया। रानी पद्मिनी पैदल इनके घर पाई और रो रोकर उसने राजा को छुड़ाने की प्रार्थना की। कठोरता के अवसर पर कठोर होनेवाला और कोमलता के अवसर पर कोमल से कोमल होनेवाला हृदय ही प्रकृत क्षत्रिय हृदय है। अत्याचार से द्रवीभूत होनेवाले हृदय की उग्रता ही लोकरक्षा के उपयोग में आ सकती है। रानी की दशा देखते ही--
गोरा बादल दुवौ पसीजे। रोवत रुहिर बूडि तन भीजे।।
दोनों की तेज भरी प्रतिज्ञा सुनकर पद्मिनी ने जो साधुवाद दिया उसके भीतर क्षात्र धर्म की ओर स्पष्ट संकेत है--