पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१२९

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(भावार्थ—हबीब! सोचो तो; वही सर्वशक्तिमान् ईश्वर प्रेममय भी है। मेघगर्जन के बीच से मनुष्य का सा यह स्वर सुनाई पड़ता है—'हे मेरे बनाए हुए हृदय! इधर भी हृदय है। हे मेरे बनाए हुए मुखड़े! मुझमें भी मुखड़ा देखा। तुझमें शक्ति नहीं है और न तू मेरी शक्ति का अनुमान कर सकता है। पर प्रेम मैंने तुझको दिया है कि तू मुझसे प्रेम कर जो तेरे लिये मर चुका है'।)

तत्वज्ञान संपन्न प्राचीन यूनानी (यवन) जाति के बीच जब 'पाल' नामक यहूदी स्थूल सीधे सादे प्रेममय ईसाई मत का प्रचार करने गया तब किस प्रकार ज्ञानमार्ग से भरे यूनानियों ने उस 'असभ्य यहूदी' की बातों की पहले उपेक्षा की, पर पीछे उसके शांतिदायक संदेश पर मुग्ध हुए, यह बात वर्णन करने के लिये ब्राउनिंग ने इसी प्रकार के एक और पत्र की रचना की है।

ब्राउनिंग के समान ही और योरोपियनों की भी यही धारणा थी कि प्रेमतत्व या भक्तिमार्ग का आविर्भाव पहले पहल ईसाई मत में हुआ और ईसाई उपदेशकों द्वारा भिन्न भिन्न देशों में फैला। भारतवर्ष के 'भागवत संप्रदाय' की प्राचीनता पूर्णतया सिद्ध हो जाने पर भी बहुतेरे अबतक उस प्रिय धारणा को छोड़ना नहीं चाहते। सच पूछिए तो 'भगवान् के हृदय' की पूर्ण भावना भारतीय भक्तिमार्ग में ही हुई। ईसाई मत को पीछे से भगवान् के हृदय का वहाँ तक आभास मिला जहाँ तक उपास्य उपासक का संबंध है। व्यक्तिगत साधना के क्षेत्र के बाहर उस हृदय की खोज नहीं की गई। केवल इतने ही से संतोष किया गया कि ईश्वर शरणागत भक्तों के पापों को क्षमा करता है और सब प्राणियों में प्रेम रखता है। इतने से ईश्वर और मनुष्य के बीच के व्यवहार में तो वह हृदय दिखाई पड़ा पर मनुष्य मनुष्य के बीच के व्यवहार में अभिव्यक्त होनेवाले तथा लोकरक्षा और लोकरंजन करनेवाले हृदय की ओर ध्यान न गया। लोक में जिस हृदय से दीन दुखियों की रक्षा की जाती है, गुरुजनों का आदर सम्मान किया जाता है, भारी भारी अपराध क्षमा किए जाते हैं, अत्यंत प्रबल और असाध्य अत्याचारियों का ध्वंस करने में अद्भुत पराक्रम दिखाया जाता है, नाना कर्तव्यों और स्नेह संबंधों का अत्यंत भव्य निर्वाह किया जाता है, सारांश यह कि जिससे लोक का सुखद परिपालन होता है, वह भी उसी एक 'परम हृदय' की अभिव्यक्ति है, इसकी भावना भारतीय भक्तिपद्धति में ही हुई।

जिस समय 'निर्गुनिए' भक्तों की लोकधर्म से उदासीन या विमुख करनेवाली वाणी सर्वसाधारण के कानों में गूँज रही थी उस समय गोस्वामी तुलसीदास जी ने किस प्रकार भक्ति के उपयुक्त प्राचीन व्यापक स्वरूप की जनसाधारण के बीच प्रतिष्ठा की, गोस्वामी जी की आलोचना में हम दिखा चुके हैं।

सूफी लोग साधक की क्रमशः चार अवस्थाएँ कहते हैं—(१) 'शरीअत'—अर्थात् धर्मग्रंथों के विधिनिषेध का सम्यक् पालन। यह है हमारे यहाँ का कर्मकांड। (२) 'तरीकत'—अर्थात् बाहरी क्रियाकलाप से परे होकर केवल हृदय की शुद्धता द्वारा भगवान् का ध्यान। इसे उपासना कांड कह सकते हैं। (३) 'हकीकत' भक्ति और उपासना के प्रभाव से सत्य का सम्यक् बोध जिससे साधक तत्वदृष्टि संपन्न और त्रिकालज्ञ हो जाता है। इसे ज्ञानकांड समझिए। (४) 'मारफत'—