और विकार दिखाई पड़तें हैं। पर अद्वैतवाद के अनुकूल सृष्टि के वर्णन में अधिक जटिलता है और शब्दों के प्रयोग में सावधानी की भी बहुत आवश्यकता है। इसका निर्वाह जायसी के लिये कठिन था। इसी से आगे चलकर इन्होंने चित्तत्व के समुद्र से जो असंख्य प्रकार के शरीरों के भीतर जीवबिंदुओं की वर्षा कराई है वह शुद्ध वेदांत के अपरिच्छिन्न चित् के अनुकूल नहीं है, विशिष्टाद्वैत भावना से ही मेल खाती है—
रहा जो एक जल गुपुत समुंदा। बरसा सहस अठारह वृंदा॥
सोई अंश घटहिं घट मेला। औ सोइ वरन वरन होइ खेला॥
इस चौपाई में 'गुपुत समुंदा' सूक्ष्म चित् है जिससे अनेक प्रकार के जीवात्माओं की उत्पत्ति हुई।
यहीं तक नहीं, उत्पत्ति का और आगे चलकर जो वर्गीकरण किया गया है वह भी विचारणीय है; जैसे—
रकत हुते तन भए चौरंगा। बिंदु हुते जिउ पाँचौं संगा॥
जस ए चारिउ धरति विलाहीं। तस वै पाँचहु सरगहि जाहीं॥
‘रक्त’ से अभिप्राय यहाँ माता के रज अर्थात् प्रकृति के उपादान से है । प्रकृति के क्रमागत विकार से नाना प्रकार के शरीर संघटित हुए, यहाँ तक तो ठीक ही ठीक है। पर चित्तत्व के अंतर्गत जीवात्मा के अतिरिक्त पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ (या पंचप्राण अर्थ लीजिए) भी हैं, यह मत भारतीय दृष्टि से शास्त्रसम्मत नहीं है। सांख्य और वेदांत दोनों में ज्ञानेंद्रियाँ और अंतःकरण तथा प्राण भी प्रकृति के उत्तरोत्तर विकार माने जाते हैं। पर अंतःकरण या मन से आत्मा भिन्न है, यह सूक्ष्म भावना पश्चिमी देशों में स्फुट नहीं थी। पर 'जस वै पाँचहुँ सरगहि जाहीं' का भारतीय अध्यात्म की दृष्टि से यह अर्थ ले सकते हैं कि जीवात्मा के साथ 'लिंग' शरीर लगा जाता है।
पदमावत के आरंभ में सृष्टि का जो वर्णन है वह तो बिल्कुल स्थूल तथा नैयायिकों, पौराणिकों तथा जनसाधारण के 'आरंभवाद' के अनुसार है। यहीं तक नहीं, उसमें हिंदुओं और मुसलमानों दोनों की भावनाओं का मेल है। उसमें एक ओर तो पुराणों के ‘सप्तद्वीप' और 'नव' खंड है, दूसरी ओर नूर की उत्पत्ति और 'हिशद हजार आलम'। उक्त वर्णन में एक बात पर और ध्यान जाता है। कवि ने सर्वत्र भूतकालिक रूप 'कोन्हेसि' का प्रयोग किया है जिसमें शामी पैगंबरी मतों (यहूदी, ईसाई और इसलाम) की इसी परिमित भावना का आभास मिलता है कि वर्तमान सृष्टि प्रथम और अंतिम है। इन मतों के अनुसार ईश्वर ने न तो इसके पहले सृष्टि की थी और न वह आगे कभी करेगा। इसमें न तो कल्पांतर की कल्पना है, न जीवों के पुनर्जन्म की। कयामत या प्रलय आने तक सब जीवात्मा इकट्ठे होते जायँगे और अंत में सबका फैसला एक साथ हो जायगा। जो पुण्यात्मा होंगे वे अनंत काल तक स्वर्ग भोगने चले जायँगे और जो पापी होंगे वे अनंत काल तक नरक भोगा करेंगे। 'पदमावत' में तो एक ही बार सृष्टि होने का थोड़ा आभास मात्र है। पर 'अखरावट' में यह बात कुछ अधिक खोलकर कही गई है—