इसी 'हि' विभक्ति का ही दूसरा रूप 'ह' है जो सर्वनामों के अंतिम वर्ण के साथ संयुक्त होकर प्रायः सब कारकों में आया है। अतः जहाँ कहीं 'हम्ह', 'तुम्ह', 'तिन्ह' या 'उन्ह' हो वहाँ यह समझना चाहिए कि यह सर्वनाम कर्ता के अतिरिक्त किसी और कारक में है—जैसे, हम्म, हमको, हमसे, हमारा, हममें, हमपर। संबंधवाचक सर्वनाम के लिये 'जो' रखा गया है तथा यदि या जब के अर्थ में अव्यय रूप 'जौ'।
प्रत्येक पृष्ठ में असाधारण या कठिन शब्दों, वाक्यों और कहीं चरणों के अर्थ फुटनोट में बराबर दिए गए हैं जिससे पाठकों को बहुत सुबीता होगा। इसके अतिरिक्त 'मलिक मुहम्मद जायसी' पर एक विस्तृत निबंध भी ग्रंथारंभ के पहले लगा दिया गया है जिसमें कवि की विशेषताओं के अन्वेषण औौर गुणदोषों के विवेचन का प्रयत्न अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार किया है।
अपने वक्तव्य में 'पदमावत' के संस्करणों का मैंने जो उल्लेख किया है, वह केवल कार्य की कठिनता का अनुमान कराने के लिये। कभी कभी किसी चौपाई का पाठ और अर्थ निश्चित करने में कई दिनों का समय लग गया है। झंझट का एक बड़ा कारण यह भी था कि जायसी के ग्रंथ बहुतों ने फारसी लिपि में उतारे। फिर उन्हें सामने रखकर बहुत सी प्रतियाँ हिंदी अक्षरों में तैयार हुईं। इससे एक ही शब्द को किसी ने एक रूप में पढ़ा, किसी ने दूसरे रूप में। अतः मुझे बहुत स्थलों पर इस प्रक्रिया से काम लेना पड़ा है कि अमुक शब्द फारसी अक्षरों में लिख जाने पर कितने प्रकार से पढ़ा जा सकता है। काव्यभाषा के प्राचीन स्वरूप पर भी पूरा ध्यान रखना पड़ा है। जायसी की रचना में भिन्न भिन्न तत्वसिद्धांतों के आभास को समझने के लिये दूर तक दृष्टि दौड़ाने की आवश्यकता थी। इतनी बड़ी बड़ी कठिनाइयों को बिना धोखा खाए पार करना मेरे ऐसे अल्पज्ञ और आलसी के लिये असंभव ही समझिए। अतः न जाने कितनी भूलें मुझसे इस कार्य में हुई होंगी, जिनके संबंध में सिवाय इसके कि मैं क्षमा माँगूँ और उदार पाठक क्षमा करें, और हो ही क्या सकता है?
कृष्ण जन्माष्टमी | रामचंद्र शुक्ल |
संवत् १९८१ |