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जायसी का रहस्यवाद

सूफियों के अद्वैतवाद का जो विचार पूर्वप्रकरण में हुआ उससे यह स्पष्ट हो गया कि किस प्रकार आर्य जाति (भारतीय और यूनानी) के तत्वचिंतकों द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धांत को सामी पैगंबरी मतों में रहस्वभावना के भीतर स्थान मिला। उक्त मतों (यहूदी, ईसाई, इसलाम) के बीच तत्वचिंतन की पद्धति या ज्ञानकांड का स्थान न होने के कारण—मनुष्य की स्वाभाविक बुद्धि या अक्ल का दखल न होने के कारण—अद्वैतवाद का ग्रहण रहस्यवाद के रूप में ही हो सकता था। इस रूप में पड़कर वह धार्मिक विश्वास में बाधक नहीं समझा गया। भारतवर्ष में तो यह ज्ञानक्षेत्र से निकला और अधिकतर ज्ञानक्षेत्र में ही रहा; पर अरब, फारस आदि में जाकर यह भावक्षेत्र के बीच मनोहर रहस्यभावना के रूप में फैला।

योरोप में भी प्राचीन यूनानी दार्शनिकों द्वारा प्रतिष्ठित अद्वैतवाद ईसाई मजहब के भीतर रहस्यभावना के ही रूप में लिया गया। रहस्योन्मुख सूफियों और पुराने कैथलिक ईसाई भक्तों की साधना समान रूप से माधुर्य भाव की ओर प्रवृत्त रही। जिस प्रकार सूफी ईश्वर की भावना प्रियतम के रूप में करते थे उसी प्रकार स्पेन, इटली योरोपीय प्रदेशों के भी। जिस प्रकार सूफी 'हाल' की दशा में उस माशूक से भीतर ही भीतर मिला करते थे उसी प्रकार पुराने ईसाई भक्त साधक भी दुलहनें बनकर उस दूल्हे से मिलने के लिये अपने अंतर्देश में कई खंडों के रंगमहल तैयार किया करते थे। ईश्वर की पति रूप में उपासना करनेवाली सैफो, सेंट टेरेसा आादि कई भक्तिनें भी योरोप में हुई हैं।

अद्वैतवाद के दो पक्ष हैं—आत्मा और परमात्मा की एकता तथा ब्रह्म और जगत् की एकता। दोनों मिलकर सर्ववाद की प्रतिष्ठा करते हैं—सर्वं खल्विदं ब्रह्म। यद्यपि साधना के क्षेत्र में सूफियों और पुराने ईसाई भक्तों दोनों की दृष्टि प्रथम पक्ष पर ही दिखाई देती है। पर भावक्षेत्र में जाकर सूफी प्रकृति की नाना विभूतियों से भी उसकी छवि का अनुभव करते हुए आए हैं।

ईसा की १९वीं शताब्दी में रहस्यात्मक कविता का जो पुनरुत्थान योरप के कई प्रदेशों में हुआ उसमें सर्ववाद का—ब्रह्म ग्रौर जगत की एकता का—भी बहुत कुछ आाभास रहा। वहाँ इसकी ओर प्रवृत्ति—स्वातंत्र्य और लोकसत्तात्मक भावों के प्रचार के साथ ही साथ दिखाई पड़ने लगी। स्वातंत्र्य के बड़े भारी उपासक अँगरेज कवि शैली में इस प्रकार के सर्ववाद की झलक पाई जाती है। आयर्लैंड स्वतंत्रता की भीषण पुकार के बीच ईट्स की रहस्यमयी कविवाणी भी सुनाई देती रही है। ठीक समय पर पहुँचकर हमारे यहाँ के कवींद्र रवींद्र भी वहाँ के सुर में सुर मिला आए थे। पश्चिम के समालोचकों की समझ में वहाँ के इस काव्यगत सर्ववाद का संबंध लोकसत्तात्मक भावों के साथ है। इन भावों के प्रचार के साथ ही स्थूल गोचर पदार्थों के स्थान पर सूक्ष्म अगोचर भावना (ऐब्स्ट्रैक्शन्स) की प्रवृत्ति