के अनुसार, उसका कुछ अंशतः वर्णन करता है। किसी मत या सिद्धांतविशेष का यह आग्रह कि ईश्वर ऐसा ही है, भ्रम है। जायसी कहते हैं—
सुनि हस्ती कर नावँ, अँधरन टोवा धाइ कै।
जेड़ टोवा जेहि ठावँ, मुहमद सो तैसे कहा॥
'एकांगदस्सिनो' (एकांगदर्शियों) का यह दृष्टांत पहले पहल बुद्ध ने दिया था। इसको जायसी ने बड़ी मार्मिकता से अपनी उदार मनोवृत्ति की व्यंजना के लिये लिया है। इससे यह व्यंजित होता है कि प्रत्येक मत में सत्य का कुछ न कुछ अंश रहता है। इंगलैंड के प्रसिद्ध तत्वदर्शी हर्बर्ट स्पेंसर ने भी यही कहा है कि 'कोई मत कैसा ही हो उसमें कुछ न कुछ सत्य का अंश रहता है। भूतप्रेतवाद से लेकर बड़े बड़े दार्शनिक वादों तक सबमें एक बात सामान्यतः पाई जाती है कि सबके सब संसार का मूल कोई अज्ञेय और अप्रमेय रहस्य समझते हैं जिसका वर्णन प्रत्येक मत करना चाहता है, पर पूरी तरह कर नहीं सकता।'
यह बात प्रसिद्ध है कि पहुँचे हुए साधक अपने अनुभव को गुप्त रखते हैं। उसे प्रकट करना वे ठीक नहीं समझते। जायसी भी कहते हैं—
मति ठाकुर के सुनि कै, कहै जो हिय मझियार।
बहुरि न मत तासों करै, ठाकुर दूजी बार॥
इस मौन का रहस्य यही है कि अध्यात्म का विषय स्वयंवेद्य और अनिर्वचनीय है। शब्दों में उसका ठीक ठीक प्रकाश हो नहीं सकता। शब्दों में प्रकट करने के प्रयत्न से दो बातें होती हैं—एक तो शब्द भावना को परिमित करके अनुभूति के कुछ बाधक हो जाते हैं। दूसरे श्रोता के तर्क वितर्क से भी वृत्ति चंचल हो जाती है। जो अचिंत्य है वह शब्दों में ठीक ठीक कैसे आ सकता है?
अचियाः खलु ये भावा न तांस्तर्केण साधयेत्।
इसी से ब्रह्म के संबंध में तीन बार प्रश्न करने पर एक ऋषि ने तीनों बार मौन ही द्वारा उत्तर दिया था।
यहाँ तक तो तत्वसिद्धांत की बात हुई। सामाजिक विचार जायसी के प्रायः वैसे ही थे जैसे उस समय जनसाधारण के थे। अब फारस आदि देशों में स्त्रियों का पद बहुत नीचा समझा जाता था। वे विलास की सामग्री मात्र समझी जाती थीं। प्राचीन भारत की बात तो नहीं कह सकते पर इधर बहुत दिनों से इस देश में भी यही भाव चला आ रहा है। बादल युद्ध में जाते समय अपनी स्त्री का हाथ छुड़ाकर उससे कहता है—
तिरिया, भूमि खड़ग कै चेरी। जीत जो खड़ग होइ तेहि केरी॥