ठेठ अवधी की एक बड़ी भारी विशेषता को सदा ध्यान में रखना चाहिए। खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों में कारकचिह्न सदा क्रिया के साधारण रूप में लगते हैं, जैसे—'करने का', 'करने को' या 'करिबे को'। पर ठेठ या पूरबी अवधी में कारकचिह्न प्रथम पुरुष, एकवचन की वर्तमानकालिक क्रिया के से रूप में लगता है, जैसे—'आवै कहँ', 'खाय माँ', 'बैठे कर'—
(क) दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ मैना।
(ख) सती होइ कहँ सीस उघारा।
कहीं कहीं कारकचिह्न का लोप भी मिलता है, जैसे—
(क) जो नित चलै सँवारै पाँखा। आजे जो रहा कालि को राखा॥
(ख) सबै सहेली देखें धाईं।
(चलै=चलने के लिये; देखै=देखने के लिये)
इसी प्रकार संयुक्त क्रिया में भी जहाँ पहले साधारण क्रिया का रूप रहताहै वहाँ भी अवधी में यही वर्तमान का सा रूप ही रहता है—
(क) तपै लांगि अब जेठ असाढ़ी।
(ख) मरै चहहिं पै मरौं न पावहि।
पूरबी अवधी में मागधी की प्रवृत्ति के अनुसार ब्रजभाषा के प्रकारांत सर्वनामों के स्थान पर एकारांत सर्वनाम होते हैं, जैसे—'को' (=कौन) के स्थान पर 'के', 'जो' के स्थान पर 'जे' और 'काऊ' के स्थान पर 'के' या 'केहूँ'। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं—
(क) केइ उपकार मरन कर कीन्हा। (=किसने)
(ख) जेंइ जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू। (=जिसने)
(ग) तजा राम रावन, का केह? (=कोई)
(घ) जियत न रहा जगत महँ केऊ (=कोई)
इन सर्वनामों का रूप विभक्ति और कारकचिह्न लगाने के पहले एकारांत ही रहता है (जैसे, केहि पर, जेहि पर); ब्रजभाषा या पश्चिमी अवधी के समान आकारांत (जैसे, जाको और जाकर, तापर और तापै) नहीं होता।
जायसी और तुलसी दोनों की रचनाओं में एक विलक्षण नियम मिलता है। वे सकर्मक भूतकालिक क्रिया के कर्ता को तो सविभक्ति पूरबी रूप 'केइ', 'जेइ' 'तेइ' रखते हैं पर सकर्मक क्रिया के कर्ता का 'को, जो, सो', जैसे—
(क) जो एहि खीर समुद्र महँ परे।
(ख) जो ओहि विषै मारि कै खाई॥
अवधी के कारकचिह्न इस प्रकार हैं—
कर्ता—+
कर्म—कहँ (आधुनिक 'काँ'), के
करण—सन्, से (पश्चिमी अवधी 'सौं')
संप्रदान—कहूँ (आधुनिक 'काँ'), के
अपादान—से (पश्चिमी अवधी 'तइँ', 'लैं')
संबंध—कर, कै