पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१७४

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ब्रज और बुंदेलखंड में यह शब्द 'हतो' इस रूप में अबतक बोला जाता है।

एक बहुत पुराना निश्चयवार्थक शब्द 'पै' है जो निश्चय या 'ही' के अर्थ में आता है। यह ठीक नहीं मालूम होता कि यह 'अपि' शब्द से आया है या और किसी शब्द से; क्योंकि 'अपि' शब्द 'भी' के अर्थ में आता है। प्रयोग इसका जायसी ने बहुत किया है। तुलसी ने कम किया है; पर किया है, जैसे—

माँगु माँगु पै कहहु पिय, कबहुँ न देहु न लेहु।

उच्चारण—दो से अधिक वर्णों के शब्द के आदि में ह्रस्व 'इ' और ह्रस्व 'उ' के उपरांत 'आ' का उच्चारण अवधी को पसंद और पच्छिमी हिंदी (खड़ी और ब्रज) को नापसंद है। इसी भिन्न प्रवृत्ति के अनुसार अवधी में बोले जानेवाले 'सियार', 'कियारी', 'बियारी', 'बियाज', 'बियाह', 'पियार', 'नियाव', आदि शब्द तथा 'दुआर', 'कुआर', 'खुआर', 'गुवाल' आदि शब्द खड़ी बोली और ब्रजभाषा में क्रमशः स्यार, क्यारी, व्यारी, व्याज, ब्याह, प्यारा, प्यारो, न्याव तथा द्वार, क्‍वार, ख्वार, ग्वाल बोले जायँगे। 'इ' और 'उ' के स्थान पर 'य' और 'व' की इसी प्रवृत्ति के अनुसार अवधी 'इहाँ', 'उहाँ' या 'हिआँ', 'हुआँ' खड़ी बोली और ब्रजभाषा में 'यहाँ', 'वहाँ' और 'ह्याँ, ह्वाँ' बोले जाते हैं। इसी प्रकार 'अ' और 'आ' के उपरांत अवधी को 'इ' पसंद है और ब्रजभाषा को 'य' जैसे—अवधी के 'आइ, जाइ, पाइ, कराइ' तथा 'आइहै, जाइहै, पाइहै, कराइहै', (अथवा अइहै, जइहै, पइहै, करइहै) के स्थान पर ब्रजभाषा में क्रमशः 'आयहै, जायहै, पायहै, करायहै, (अथवा, आयहै=ऐहै, जायहै=जैहै) कहेंगे।

इसी रुचिवैचित्र्य के कारण 'ऐ' और 'औ' का संस्कृत उच्चारण (अइ, अउ के समान) पच्छिमी हिंदी से जाता सा रहा, केवल 'यकार' और 'वकार' के पहले रह गया (जैसे, गैया, कन्हैया)। पर यह अवधी में बना हुआ है। इससे अवधी में 'ऐ' और 'औ' का उच्चारण 'अय' और 'अब' सा न करके 'अइ' और 'अउ' सा करना चाहिए, जैसे—ऐस अइस, जैस जइस, भैस भँइस, दौरि दउरि इत्यादि। केवल पदांत के 'ऐ' और 'औका उच्चारण पच्छिमी हिंदी के समान 'अय' और 'अब' सा करना चाहिए, जैसे—कहै लाग=कहय लाग, तपै लाग=तपय लाग, चलौ=चलब इत्यादि।

प्राकृत की एक पंचमी विभक्ति 'सुंतो' थी, जो 'से' के अर्थ में आती थी। इसका हिंदी रूप 'सेंती' (तृतीया में) बहुत दिनों तक बोला जाता रहा। 'बली' आदि उर्दू के पुराने शायरों तक में यह विभक्ति मिलती है। कबीरदास ने भी इसका व्यवहार किया है, जैसे—

तोहि पीर जो प्रेम की पाका सेंती खेल।

तुलसीदास जी ने इसका कहीं व्यवहार किया है या नहीं, ठीक ठीक नहीं कह सकते पर जायसी इसे बहुत जगह लाए हैं, जैसे—

(क) सबन्ह कहा मन समझहु राजा।

काल सेंति के जूझ न छाजा॥

(ख) रतन छुवा जिन्ह हाथन्ह सेंती