सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
पदमावत

रूपवंत मनि माथे, चंद्र घाटि वह बाढ़ि।
मेदिनि दरस लोभानी, असतुति विनवै ठाढ़ि॥१६॥

पुनि दातार दई जग कीन्हा। अस जग दान न काहू दीन्हा॥
बलि बिक्रम दानी बड़ कहे। हातिम करन तियागी अहे॥
सेरसाहि सरि पूज न कोऊ। समुद सुमेर भंडारी दोऊ॥
दान डाँक बाजै दरबारा। कीरति गई समुंदर पारा॥
कंचन परसि सूर जग भयऊ। दारिद भागि दिसंतर गयऊ॥
जो कोई जाइ एक बर माँगा। जनम न भा पुनि भूखा नागा॥
दस असमेध जगत जेइ कीन्हा। दान-पुन्य-सरि सौंह न दीन्हा॥

ऐस दानि जग उपजा सेरसाहि सुलतान।
ना आस भय न होइहि, ना कोई देइ अस दान॥१७॥

सैयद असरफ पीर पियारा। जेहि मोहि पंथ दीन्ह उँजियारा॥
लेसा हियें प्रेम कर दीया। उठी जोति भा निरमल हीया॥
मारग हुत अँधियार जो सूझा। भा अंजोर, सब जाना बूझा॥
खार समुद्र पाप मोर मेला। बोहित-धरम कै चेला॥
उन्ह मोर कर बूड़त कै गहा। पायों तीर घाट जो अहा॥
जाकहँ ऐस होड़ कंधारा। तुरत वेगि सो पावै पारा॥
दस्तगीर गाढ़ कै साथी, वह अवगाह, दीन्ह तेहि हाथी॥

जहाँगीर वै चिस्ती निहकलंक जस चाँद।
वै मखदूम जगत के, हों ओहि घर कै बाँद॥१८॥

ओहि घर रतन एक निरमरा। हाजी सेख सवै भरा गुन भरा॥
तेहि घर दुइ दीपक उजियारे। पंथ देइ कहँ दैव सँवारे॥
सेख मुहम्मद पून्यो करा। सेख कमाल जगत निरमरा॥
दुऔ अचल धुव डोलहिं नाही। मेरु खिखिंद तिन्हहुँ उपराहीं॥
दीन्ह रूप औ जोति गोसाईं। कीन्ह खंभ दुइ जग के ताईं॥
दुहूँ खंभ टेके सब मही। दुहुँ के भार सिहिटि थिर रही॥
जेहि दरसे औ परसे पाया। पाप हरा, निरमल भइ काया॥

मुहमद तेइ निचिंत पथ जेहि सँग मुरसिद पीर।
जेहिके नाव औ खेवक बेगि लागि सो तीर II१९॥


(बढ़कर)। करा = कला। ससि चौदसि = पूर्णिमा (मुसलमान प्रथम चंद्र-दर्शन अर्थात् द्वितीया से तिथि गिनते हैं, इससे पूर्णिमा को उनकी चौदहवीं तिथि पड़ती है।)

(१७) डाँक = डका। सौंह न दीहा = सामना न किया। (१८) लेसा = जलाया। कंधार = कर्णधार, केवट। हाथी दीन्ह = हाथ दिया, बाँह का सहारा दिया। अँजोर = उजाला। खिखिंद = किष्किंधा पर्वत। (१९) खेवक = खेने वाला, मल्लाह।