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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१८९

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स्तुति खंड

गुरु मोहदी खेवक मैं सेवा। चलै उताइल जहिं कर खेवा॥
अगुवा भएउ सेख बुरहानू। पंथ लाइ मोहि दीन्ह गियानू॥
अहलदाद भल तेहि कर गुरू। दीन दुनी रोसन सुरखुरू॥
सैयद मुहमद कै वै चेला। सिद्ध-पुरुष-संगम जेहि खेला॥
दानियाल गुरु पंथ लखाए। हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए॥
भए प्रसन्न आहि हजरत ख्वाजे। लिये मेरइ जहँ सैयद राजे॥
आहि सेवा मैं पाई करनी। उघरी जीभ, प्रेम कवि बरनी॥

वै सुगुरू, हौं चेला, नित विनबौं भा चेर।
उन्ह हुत देखै पायउँ दरस गोसाईं केर॥२०॥

एक नयन कवि मुहमद गुनी। सोइ बिमोहा जेहि कवि सुनी॥
चाँद जैस जग विधि औतारा। दीन्ह कलंक, कीन्ह उजियारा॥
जग सूझा एकै नयनाहाँ। उआ सूक जस नखतन्ह माहाँ॥
जौ लहि अंबहि डाभ न होई। तौ लहि सुगँध बसाइ न सोई॥
कीन्ह समुद्र पानि जो खारा। तौ अति भयउ असूझ अपारा॥
जौ सुमेरु तिरसूल विनासा। भा कंचन गिरि, लाग अकासा॥

एक नयन जस दरपन औ निरमल तेहि भाउ।
सब रुपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिं कै चाउ॥२१॥

चारि मीत कवि मुहमद पाए। जोरि मिताई सिर पहुँचाए॥
यूसुफ मलिक पँडित बहु ज्ञानी। पहिले भेद-बात वै जानी॥
पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ। खांड़े-दान उभै निति बाहाँ॥
मियाँ सलोने सिंघ बरियारू। बीर खेत रन खड़ग जुझारू॥
सेख बड़े, बड़ सिद्ध बखाना। किए आदेस सिद्ध बड़ माना॥
चारिउ चतुरदसा गुन पढ़े। औ सजोग गोसाईं गढ़े॥
बिरिछ होइ जौ चंदन पासा। चंदन होड़ वेधि तेहि बासा॥

मुहमद चारिउ मीत मिलि भए जो एकै चित्त।
एहि जग साथ जो निबहा, ओहि जग बिछुरन कित्त॥२२॥

जायस नगर धरम अस्थानू। तहाँ आइ कवि कीन्ह बखानू॥
औ बिनती पंडितन सन भजा। टूट सँवारहु नेवरहू सजा॥
हौं पंडितन केर पछलगा। किछु कहि चला तबल देइ डगा॥
हिय भँडार नग अहै जो पूँजी। खोली जीभ तारु कै कूँजी॥
रतन पदारथ बोल जो बोला। सुरस प्रेम मधु भरा अमोला॥


(२०) खेवा = नाव का बोझ। सुरखुरू = सुर्खरू, मुख पर तेज धारण करनेवाले। उताइल = जल्दी। मेरइ लिये = मिला लिया।सैयद राजे = सैयद राज हामिदशाह। उन्ह हुत = उनके द्वारा (प्रा॰ हिंतो)। (२१) नयनाहाँ = नयन से, आँख से। डाभ = आम के फल के मुँह पर का तीखा चेप। चोपी। (२२) मतिमाहाँ = मतिमान्। उभै = उठती है। जुझारू = योद्धा। चतुर-दसा गुन = चौदह विद्याएँ।