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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१९१

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(२) सिंहलद्वीप वर्णन खंड

सिंघलद्वीप कथा अब गावौं। औ सो पदमिनि बरनि सुनावौं॥
निरमल दरपन भाँति बिसेखा। जो जेहि रूप सो तैसइ देखा॥
धनि सो दीप जहँ दीपक बारी। औ पदमिनि जो दई सँवारी॥
सात दीप बरनै सब लोगू। एक दीप न ओहि सरि जोगू॥
दियादीप नहिं तस उँजियारा। सरनदीप सर होइ न पारा॥
जंबूदीप कहौं तस नाहीं। लंकदीप सरि पूज न छाहीं॥
दीप गभस्थल आरन परा। दीप महुस्थल मानुस हरा॥

सब ससार परथमैं आए सातौं दीप।
एक दीप नहिं उत्तिम सिंघलदीप समीप॥१॥

गध्रबसेन सुगंध नरेसू। सो राजा, वह ताकर देसू॥
लंका सुना जो रावन राजू। तेहु चाहि बड़ ताकर साजू॥
छप्पन कोटि कटक दल साजा। सबै छत्रपति औ गढ़ राजा॥
सोरह सहस घोड़ घोड़सारा। स्यामकरन अरु बाँक तुखारा॥
सात सहस हस्ती सिंघली। जनु कबिलास एरावत बली॥
अस्वपतिक सिरमौर कहावै। गजपतीक आँकुस गज नावै॥
नरपतीक कहँ और नरिंदु? भूपतीक जग दूसर इंदू॥

एस चक्कवै राजा चहूँ खंड भय होइ।
सबै आइ सिर नावहिं सरबरि करै न कोई॥२॥

जबहिं दीप नियरावा जाई। जनु कविलास नियर भा आई॥
घन अमराउ लाग चढ़ पासा। उठा भूमि हुत लागि अकासा॥
तरिवर सबै मलयगिरि लाई। भइ जग छाँह रैनि होइ आई॥
मलय समीर सोहावन छाहाँ। जेठ जाड़ लागै तेहि माहाँ॥
ओही छाँह रैनि होइ आवै। हरियर सबै अकास देखावै॥
पथिक जो पहुँचै सहि के घामू। दुख बिसरै, सुख होइ बिसरामू॥
जेइ वह पाई छाहँ अनूपा। फिरि नहि आइ सहै यह धूपा॥

अस अमराउ सघन घन, बरनि न पारौं अंत।
फूलै फरै छवौ ऋतु, जानहु सदा बसंत॥३॥


(१) बारी = बाला, स्त्री। सरनदीप—अरबवाले लंका को सरनदीप कहते थे। भूगोल का ठीक ज्ञान न होने के कारण कवि ने स्वर्णद्वीप और सिंहल को भिन्न भिन्न द्वीप माना है। हरा = शून्य। (२) तुखार = तुषार देश का घोड़ा। इंदु = इंद्र। चाहि = अपेक्षा (बढ़कर), बनिस्बत। कविलास = स्वर्ग। (३) भूमि हुत = पृथ्वी से (लेकर)। लागि = तक।