पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१९०

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पदमावत

जेहि के बोल बिरह कै धाया। कहँ तेहि भूख कहाँ तेहि माया?
फेरे भेंख रहै भा तपा। धरि लपेटा मानिक छपा॥

मुहमद कवि जौ विरह भा ना तन रकत न माँसू।
जइ मुख देखा तेइ हँसा, सुनि तेहि आयउ आँसु॥२३॥

सन नव से सत्ताइस अहा। कथा आरंभ बैन कवि कहा॥
सिंघलदीप पदमिनी रानी। रतनसेन चितउर गढ़ आनी॥
अलउदीन देहली सुलतान। राघौ चेतन कीन्ह बखानू॥
सुना साहि गढ़ छेंका आई। हिंदू तुरुकन्ह भई लराई॥
आदि अंत जस गाथा अहै। लिखि भाखा चौपाई कहै॥
कवि बियास कँवला रस पूरी। दूरि सो नियर, नियर सो दूरी॥
नियरे दूर, फूल जस काँटा। दूरि जो नियरे, जस गुड़ चाँटा॥

भँवर आइ बनखँड सन लेइ कंबल कै बास।
दादुर बास न पावई भलहि जो आछै पास॥२४॥





(२३) बिनती भजा = बिनती की (करता हूँ)। टूट = त्रुटि, भूल। डगा = डुगी बजाने की लकड़ी। तारु = (क) तालू। (ख) ताला कुंजी = कुंजी। फेरे भेष = वेष बदलते हुए। तपा = तपस्वी (२४) आछै =है। जैसे—कह कबीर कटु अछिलो न जहिया।