पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३
सिंहलद्वीप वर्णन खंड

कोई करै बेसाहनी, काहू केर बिकाइ।
कोई चलै लाभ सन, कोई मूर गँवाइ॥१३॥

पुनि सिंगारहाट भल देसा। किए सिँगार बैठीं तहँ बेसा॥
मुख तमोल, तन चीर कुसुंभी। कानन कनक जड़ाऊ खुंभी॥
हाथ बीन सुनि मिरिग भुलाहीं। नर मोहहिं सुनि, पैग न जाहीं॥
भौंह धनुष, तिन्ह नैन अहेरी। मारहिं बान सान सौं फेरी॥
अलक कपोल डोल, हँसि देहीं। लाइ कटाछ मारि जिउ लेहीं॥
कुच कंचुक जानौ जुग सारी। अंचल देहिं सुभावहिं ढारी॥
केत खिलार हारि तेहि पासा। हाथ झारि उठि चलहिं निरासा॥

चेटक लाइ हरहिं मन, जब लहि होइ गथ फेंट।
साँठ नाठि उठि भए बटाऊ, ना पहिचानि न भेंट॥१४॥

लेइ के फूल बैठि फुलहारी पान अपूरब धरे सँवारी॥
सोंधा सवैं बैठ लै गाँधी। फूल कपूरे खिरौरी बाँधी॥
कतहूँ पंडित पढ़हिं पुरानू। धरमपंथ कर करहिं बखानू॥
कतहूँ कथा कहै किछु, कोई। कतहूँ नाच कूद भल होई॥
कतहूँ चिरहँटा पंखी लावा। कतहुँ पखंडी काठ नचावा॥
कतहूँ नाद सबद होइ भला। कतहूँ नाटक चेटक-कला॥
कतहुँ, काहु ठगविद्या लाई। कतहुँ लेहिं मानुष बौराई॥

चरपट चोर गँठिछोरा मिले रहहिं ओहि नाच।
जो ओहि हाट सजग भा गथ ताकर पै बाँच॥१५॥

पुनि आए सिंघल गढ़ पासा। का बरनौ जनु लाग अकासा॥
तरहिं करिन्ह बासुकि कै पीठी। ऊपर इंद्रलोक पर दीठी॥
परा खोह चहुँ दिसि अस बाँका। काँपै जाँघ, जाइ नहि झाँका॥
अगम असूझ देखि डर खाई। परै सो सपत पतारहिं जाईं॥
नव पौरी बाँकी, नवखंडा। नवौ जो चढ़े जाइ बरम्हंडा॥
कंचन कोट जरे नग सीसा। नखतहिं भरी बीजू जनु दीसा॥
लंका चाहि ऊँच गढ़ ताका। निरखि न जाइ, दीटि तन थाका॥


पीठ टिकाकर। (१३) कुहकुहँ = कुंकुम, केसर। धवल = सफेदी। सिरी = श्री, रोली, लाल बुकनी (श्री का चिह्न तिलक में रोली से बनाते हैं इसी से रोली को श्री कहते हैं)। दूकानदार प्रायः सिंदूररोली आादि के चिह्न दुकानों पर बनाते हैं। बेना = खस वा गंधबेन। बेसाहनी = खरीद। (१४) बेसा = वेश्या। खुंभी = कान में पहनने का एक गहना, लौंग या कील। सारी = सारि, पासा। गथ = पूँजी। (१४) साँठ = पूंजी । नाठि = नष्ट हुई। (१५) सोंधा = सुगंध द्रव्य। गाँधी = गंधी। खिरौंरी = केवड़ा देकर बाँधी हुई खैर या कत्थे की टिकिया। चिरहँटा = बहेलिया। पखंडी = कठपुतलीवाला। (१६)