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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१९६

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पदमावत

हिय न समाइ दीठि नहिं जानहुँ ठाढ़ सुमेर।
कहँ लगि कहौं ऊँचाई, कहँ लगि बरनौं फेर॥१६॥

निति गढ़ बाँचि चले ससि सूरू। नाहिं त होइ बाजि रथ चूरू॥
पौरी नवौ बज्र कै साजी। सहस सहस तहँ बैठे पाजी॥
फिरहिं पाँच कोतवार सुभौंरी। काँपै पाव चपत वह पौरी॥
पौरिहि पौरि सिंह गढ़ि काढ़े। डरपहिं लोग देखि तहँ ठाढ़े॥
बहुबिधान वे नाहर गढे। जनु गाजहिं, चाहहिं सिर चढ़े॥
टारहिं पूँछ, पसारहिं जीहा। कुंजर डरहिं कि गुंजरि लीहा॥
कनक-सिला गढ़ि सीढ़ी लाईं। जगमाहिं गढ़ ऊपर ताई॥

नवौं खंड नव पौरी, औ तहँ वज्र-केवार॥
चारि बसेरे सौं चढ़ै, सत सौं उतरै पार॥१७॥

नव पौरी पर दसवें दुवारा। तेहि पर बाज राज घरियारा॥
घरी सो बैठि गनै घरियारी। पहर पहर सो आपति बारी॥
जबहीं घरी पूजि तेइँ मारा। घरी घरी घरियार पुकारा॥
परा जो डाँड़ जगत सब डाँड़ा। का निचिंत माटी कर भाँड़ा?॥
तुम्ह तेहि चाक चढ़े हौ काँचे। आएहु रहै न थिर होइ बाँचे॥
घरी जो भरी घटी तुम्ह आऊ। का निचिंत होड़ सोड बटाऊ?॥
पहरहिं पहर गजर निति होई। हिया बजर, मन जाग न सोई॥

मुहमद जीवन जल भरन, रहँट-घरी कै रीति।
घरी जो आई ज्यों भरी, ढरी, जनम गा बीति॥१८॥

गढ़ पर नीर खीर दुइ नदी। पनिहारी जैसे दुरपदी॥
और कुंड एक मोतीचूरू। पानी अमृत, कीच कपूरू॥
ओहि क पानि राजा पै पीया। बिरिध होइ नहिं जौ लहि जीया॥
कंचन-बिरिछ एक तेहि पासा। जस कलपतरु इंद्र कबिलासा॥
मूल पतार, सरग ओहि साखा। अमरबेलि को पाव को चाखा?॥
चाँद पात औ फूल तराईं। होइ उजियार नगर जहँ ताईं॥
वह फल पावै तप करि कोई। बिरिध खाइ तौ जोबन होई॥

राजा भए भिखारी सुनि वह अमृत भोग।
जेइ पावा सो अमर भा, ना किछु व्याधि न रोग॥१९॥

गढ़ पर बसहिं चारि गढ़पती। असुपति, गजपति, भू-नर-पती॥
सब धौराहर सोने साजा। अपने अपने घर सब राजा॥


करिन्ह = दिग्गजों। (१७) पाजी = पैदल सिपाही। कोतवार = कोटपाल, कोतवाल। गुंजरि लीहा = गरज कर लिया।
बसेरा = टिकान। (१८) रहँट-घरी = रहट में लगा छोटा घड़ा। घरियार = घंटा। घरी भरी = घड़ी पूरी हुई (पुराने समय में समय जानने के लिये पानी भरी नाँद में एक घड़िया या कटोरा महीन महीन छेद करके तैरा दिया जाता था।