सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८
पदमावत

भैं पदमावति पंडित गुनी। चहूँ खंड के राजन्ह सुनी॥
सिंघलदीप राजघर बारी। महा सुरूप दई औतारी॥
एक पदमिनि औ पंडित पढ़ी। तहुँ केहि जोग गोसाईं गढ़ी॥
जा कहँ लिखी लच्छि घर होनी। सो असि पाव पढ़ी औ लोनी॥
सात दीप के बर जो ओनाहीं। उत्तर पावहिं, फिरि फिरि जाहीं॥

राजा कहै गरब कै, अहौ इंद्र सिवलोक।
सो सरवरि है मोरे, कासौं करौं बरीक॥४॥

बारह बरस माँह भै रानी। राजें सुना सैंजोग सयानी॥
सात खंड धौराहर तासू। सो पदमिनि कहँ दीन्ह निवासू॥
औ दीन्ही सँग सखी सहेली। जो सँग करैं रहसि रस केली॥
सबै नवल पिउ संग न साँईं। कँवल पास जनु विगसी कोई॥
सुथा एक पदमावति ठाऊँ। महा पंडित हीरामन नाऊँ॥
दई दीन्ह पंखिहि अस जोती। नैन रतन, मुख मानिक मोती॥
कंचन बरन सुआ अति लोना। मनाहुँ मिला सोहागहिं सोना॥

रहहिं एक सँग दोऊ; पढ़हि सासतर वेद।
बरम्हा सीस डोलावहीं, सुनत लाग तस भेद॥५॥

भैं उनंत पदमावति बारी। रचि रचि विधि सब कला सँवारी॥
जग बेधा तेहि अंग सुबासा। भंवर आइ लुबुधे चहुँ पासा॥
बेनी नाग मलयगिरि पैठी। ससि माथे हाइ दूइज बैठी॥
भौंह धनुक साधे सर फरै। नयन कुरंग भूलि जनु हेरै॥
नासिक कौर, कँवल मुख सोहा। पदमिनि रूप देखि जग मोहा॥
मानिक अधर, दसन जनु हीरा। हिय हुलसे कुच कनक गंभीरा॥
केहरि लंक, गवन गज हारे। सुरनर देखि माथ भुइँ धारे॥

जग कोइ दीठि न आवै, आछहिं नैन अकास।
जोगि जती सन्यासी, तप साधहिं तेहि आस॥६॥

एक दिवस पदमावति रानी। हीरामन तइँ कहा सयानी॥
सुनु हीरामनि कहौं बुझाईं। दिन दिन मदन सतावै आई॥
पिता हमार न चालै बाता। त्रासहिं बोलि सकै नहिं माता॥
देस देस के बर मोहि आवहिं। पिता हमार न आँख लगावहिं॥
जोबन मोर भयउ जस गँगा। देह देह हम्ह लाग अनंगा॥
हीरामन तब कहा बुझाई। बिधि कर लिखा मेटि नहिं जाई॥
अज्ञा देउ देखौं फिरि देसा। तोहि जोग वर मिलै नरेसा॥



जमबारू = यमद्वार। (४) बैसारि दीन्ह = बैठा दिया। बरोक = (बर रोक) बरच्छा। (५) कोई = कुमुदिनी। (६) उनंत = ओनंत, भार से झुकी (यौवन के), 'बारी' शब्द के कुमारी और बगीचा दो अर्थ लेने से इसकी संगति बैठती है।