जौ लगि मैं फिर आवौं मन चित धरहु निवारि।
सुनत रहा कोइ दुरजन, राजहि कहा विचारि॥७॥
राजा सुना दीठि भै आना। बुधि जो देहि सँग सुआ सयाना॥
भएउ रजायसु मारहु सूआ। सूर सुनाव चाँद जहँ ऊआ॥
सत्रु सुआ के नाऊ वारी। सुनि धाए जस धाव मँजारी॥
तब लगि रानी सुआ छपावा। जब लगि व्याध न आवै पावा॥
पिता क आयसु माथे मोरे। कहहु जाय विनवों कर जोरे॥
पंखि न कोई होइ सुजानू। जानै भुगुति, कि जान उड़ानू॥
सुआ जो पढ़ै पढ़ाए बैना। तेहि कत बुधि जेहि हिये न नैना॥
मानिक मोती देखि वह, हिये न ज्ञान करेइ।
दारिउँ दाख जानि कै, अबहिं ठोरि भरि लेइ॥८॥
वै तो फिरे उतर अस पावा। बिनवा सुआ हिये डर खावा॥
रानी तुम जुग जुग सुख पाऊ। होइ अज्ञा बनवास तौ जाऊँ॥
मोतिहिं मलिन जो होई गइ कला। पुनि सो पानि कहाँ निरमला?॥
ठाकुर अंत चहै जेहि मारा। तेहि सेवक कर कहाँ उबारा?॥
जेहि घर काल मजारी नाचा। पखिहिं नाउँ जीउ नहिं बाँचा॥
मैं तुम्ह राज बहुत सुख देखा। जौ पूछहि दे जाइ न लेखा॥
जो इच्छा मन कीन्ह सो जेंवा। यह पछिताव चल्यो बिनु सेवा॥
मारै सोइ निसोगा, डरै न अपने दोस।
केरा केलि करै का, जौ भा बैरि परोस॥९॥
रानी उतर दीन्ह कै माया। जौ जिउ जाइ रहै किमि काया?॥
हीरामन! तू प्रान परेवा। धोख न लाग करत तोहिं सेवा॥
तोहिं सेवा बिछुरन नहिं आखौं। पींजर हिये घालि कै राखौं॥
हौं मानुस, तू पंखि पियारा। धरम क प्रीति तहाँ केइ मारा?
का सो प्रीति तन माँह बिलाई? सोइ प्रीति जिउ साथ जो जाई॥
प्रीति मार लै हिये न सोचू। ओहि पंथ भल होइ कि पोचू॥
प्रीति पहार भार जो काँधा। सो कस छुटै, लाइ जिउ बाँधा॥
सुअटा रहै सुरुक जिउ, अबहुिं काल सो आव।
सत्रु अहै जो करिया, कबहूँ सो बोरै नाव॥१०॥
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(८) मजारी = मार्जारी, बिल्ली। (९) पानि = आब, आभा, चमक, जेंवा = खाया। बैरि = बेर का पेड़।
(१०) आखौं = (सं॰ आकांक्षा) चाहती हूँ, अथवा (सं॰ आख्यान, पंजाबी—आखन) कहती हूँ। करिया = कर्णधार, मल्लाह।