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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२०४

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पदमावत

लागीं सब मिलि हेरै, बूड़ि बूड़ि एक साथ।
कोइ उठी मोती लेइ, काहू घोंघा हाथ॥७॥

कहा मानसर चाह सो पाई। पारंस रूप इहाँ लगि आई॥
भा निरमल तिन्ह पायन्ह परसे। पावा रूप रूप के दरसे॥
मलय समीर वास तन आई। भा सीतल, पै तपनि बुझाई॥
न जनौं कौन पौन लेइ आवा। पुन्य दसा भै पाप गँवावा॥
ततखन हार बेगि उतिराना। पावा सखिन्ह चंद बिहँसाना॥
बिगसा कुमुद देखि ससि रेखा। भै तहँ ओप जहाँ जोइ देखा॥
पावा रूप रूप जस चहा। ससि मुख जनु दरपन होड़ रहा॥

नयन जो देखा कवँल भा, निरमल नीर सरीर।
हँसत जो देखा हंस भा, दसन जोति नग हीर॥८॥




रउताई = रावत या स्वामी होने का भाव, ठकुराई। फुलायल = फुलेल। (८) चाह = खबर, आहट।