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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२०६

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२४
पदमावत

देखिय किछु अचरज अनभला। तरिवर एक आवत है चला॥
एहि बन रहत गई हम्ह आऊ। तरिवर चलत न देखा काऊ॥
आज तो तरिवर चल, भल नाहीं। आवहु यह बन छाँड़ि पराहीं॥
वै तौ उड़े और बन ताका। पंडित सुआ भूलि मन थाका॥
साखा देखि राजु जनु पावा। बैठ निचिंत चला वह आवा॥

पाँच बान कर खोंचा, लासा भरे सो पाँच।
पाँख भरे तन अरुझा, कित मारे बिनु बाँच॥४॥

बँधिगा सुआ करत सूख केली। चूरि पाँख मेलेसि धरि डेली॥
तहवाँ बहुत पंखि खरभरहीं । आपु आपु महँ रोदन करहीं॥
बिखदाना कित होत अँगूरा। जेहि भा मरन डहन धरि चूरा॥
जौं न होत चारा कै आसा। कित चिरिहार ढुकत लेइ लासा॥
यह विष चारै सब बुधि ठगी। औ भा काल हाथ लेइ लगी॥
एहि झूठी माया मन भूला। ज्यों पंखी तैसे तन फूला॥
यह मन कठिन मरै नहिं मारा। काल न देख, देख पै चारा॥

हम तो बुद्धि गँवावा, विष चारा अस खाइ।
ते सुअटा पंडित होइ, कैसे बाझा आइ॥५॥

सुऐ कहा हमहूँ अस भूले। टूट हिंडोल गरब जेहि भूले॥
केरा के बन लीन्ह बसेरा। मेरा साथ तहँ बैरी केरा॥
सुख कुरवारि फरहरी खाना। ओहु विष भा जब व्याध तुलाना॥
काहेक भोग बिरिछ अस फरा। आड़ लाइ पंखिन्ह कहँ धरा?॥
सुखी निचिंत जोरि धन करना। यह न चिंत आगे है मरना॥
भूले हमहुँ गरब तेहि माहाँ। सो बिसरा पावा जेहि पाहाँ।
हौइ निचिंत बैठे तेहि आड़ा। तब जाना खोंचा हिए गाड़ा॥

चरत न खुरुक कीन्ह जिउ, तब रे चरा सुख सोइ॥
अब जो फाँद परा गिउ, तब रोए का होइ॥६॥

सुनि कै उतर आँसु पुनि पोंछे। कौन पंखि बाँधा बुधि ओछे॥
पंखिन्ह जौ बुधि होइ उजारी॥ पढ़ा सुआ कित धरै मँजारी॥
कित तीतिर बन जीभ उघेला। सौ कित हँकर फाँद गिउ मेला॥


(४) ढुका = छिपकर बैठा। आऊ = आायु। काऊ = कभी। खोंचा = चिड़िया फँसाने का बाँस। (५) डेली = डली, झाबा। डहन = डैना, पर। चिरिहार = बहेलिया। ढुकत = छिपता। लगी = लगी, बाँस की छड़। फूला = हर्ष औौर गर्व से इतराया। अँगूरा = अंकुर। (६) कुरवारि = खोद-खोदकर, चोंच मार मारकर, जैसे—धरनी नख चरनन कुरवारति—सूर। तुलाना = आ पहुँचा।