पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८
पदमावत

हौं बाम्हन औ पंडित, बहु आपन गुन सोइ।
पढ़े के आगे जो पढ़ै, दून लाभ तेहि होइ॥३॥

तब गुन मोहि अहा, हो देवा। जब पिंजर हुत छूट परेवा॥
अब गुन कौन जो बँद, जजमाना। घालि मँजूसा बेचै आना॥
पंडित होइ सो हाट न चढ़ा। चहौं बिकाय, भूलि गा पढ़ा॥
दुइ मारग देखौं यहि हाटा। दई चलावै दहुँ केहि बाटा॥
रोवत रकत भएउ मुख राता। तन भा पियर कहौं का बाता?
राते स्याम कंठ दुइ गोवाँ। तेहिं दुइ फंद डौं सुठि जोवा॥
अब हौं कंठ फंद खुद दुइ चीन्हा। दहुँ ए फंद चाह का कीन्हा?॥

पढ़ि गुनि देखा बहुत मैं, है आगे डर सोइ।
धुंध जगत सब जानि कै, भूलि रहा बुधि खोइ॥४॥

सुनि बाम्हन बिनवा चिरिहारू। करि पंखिन्ह कहँ मया न मारू॥
निठुर होइ जिउ बधसि परावा। हत्या केर न ताहि डर आवा॥
कहसि पंखि का दोस जनावा। निठुर तेइ जे परमँस खावा॥
आवहि रोइ, जात पुनि रोना। तबहूँ न तजहिं भोग सुख सोना॥
औ जानहिं तन हाइहि नासू। पोखै माँसु पराय माँसू॥
जो न होहिं अस परमँस खाधू। कित पंखिन्ह कहँ धरै बियाधू?
जो ब्याधा नित पंखिन्ह धरई। सो बेचत मन लोभ न करई॥

बाम्हन सुआ बेसाहा, सुनि मति वेद गरंथ।
मिला आई कै साथिन्ह, भा चितउर के पंथ॥५॥

तब लगि चित्रसेन सर साजा। रतनसेन चितउर भा राजा॥
आइ बात तेहि आगे चली। राजा बनिज आए सिंघली॥
हैं गजमोति भरी सब सीपी। और वस्तु बहु सिंघलदीपी॥
बाम्हन एक सुआ लइ आवा। कंचनबरन अनूप सोहाबा॥
राते स्याम कंठ दुइ काँठा। राते डहन लिखा सब पाठा॥
औ दुइ नयन सुहासन राता। राते ठौर अमीरस बाता॥
मस्तक टीका, काँध जनेऊ। कवि बियास, पंडित सहदेऊ॥

बोल अरथ सौं बोलै, सुनत सीस सब डोल।
राज मँदिर महँ चाहिय, अस वह सुआ अमोल॥६॥

भै रजाइ जन दस दौराए। बाम्हन सुआ बेगि लेइ आए॥
विप्र असीस विनति औधारा। सुआ जोउ नहिं करों निनारा॥
पै यह पेट महा बिसवासी। जेइ सब नाव तपा सन्यासी॥



(३) पतंग-मँड़ारे = चिड़ियों के मड़रे में वा झावे में। चल = चंचल, हिलता डोलता। (४) मँजूसा = मंजूषा, डला। कंठ = कंठा, काली लाल फकीर जो तोतों के गले पर होती है। धुंध = अंधकार। (५) परमँस = दूसरे का मांस। खाधू = खानेवाला। (६) सर साजा = चिता पर चढ़ा; मर गया।