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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२११

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बनिजारा खंड

डासन सेज जहाँ किछु नाहीं। भुइँ परि रहै लाइ गिउ बाहीं॥
आँधर रहै, जो देख न नैना। गूंग रहै, मुख आव न बैना॥
बाहिर रहै, जो स्रवन न सुना। पै यह पेट न रह निरगुना॥
कै कै फेरा निति यह दोखी। बारहिं बार फिरै, न सँतोखी॥

सो मोहि लेइ मँगावै, लावै भूख पियास।
जौ न होत अस बैरी, केहु न केहु कै आस॥७॥

सुआ असीस दीन्ह बड़ साजू। बड़ परताप अखंडित राजू॥
भागवंत विधि बड़ औतारा। जहाँ भाग तहँ रूप जोहारा॥
कोइ केहु पास आस कै गौना। जो निरास डिढ़ आसन मौना॥
कोई बिनु पूछे बोल जो बोला। होइ बोल माटी के मोला॥
पढ़ि गुनि जानि वेदमति भेऊ। पूछै बात कहैं सहदेऊ॥
गुनी न कोई आपु सराहा। जो बिकाइ, गुन कहा सो चाहा॥
जौ लगि गुन परगट नहिं होई। तौ लहि मरम न जानै कोई॥

चतुरवेद हौं पंडित, हीरामन मोहि नाँव।
पदमावति सौं मेरवौं, सेब करौं तेहि ठावँ॥८॥

रतनसेन हीरामन चीन्हा। एक लाख बाम्हन कहँ दीन्हा॥
विप्र असीसि जो कीन्ह पयाना। सुआ सो राजमंदिर महँ आना॥
बरनौं काह सुआ कै भाखा। धनि सो नावँ हीरामन राखा॥
जो बोलै राजा मुख जोवा। जानौ मोतिन हार परोवा॥
जौ बोलै तौ मानिक मूँगा। नाहिं त मौन बाँध रह गूँगा॥
मनहूँ मारि मुख अमृत मेला। गुरु होइ आप, कीन्ह जग चेला॥
सुरुज चाँद कै कथा जो कहेऊ। पेम क कहनि लाइ चित गहेऊ॥

जो जो सुनै धुनै सिर, राजहिं प्रीति अगाहु।
अस गुनवंता नाहिं भल, बाउर करिहै काहु॥९॥




(७) बिसवासी = विश्वासघाती। नाव = नवाता है, नम्र करता है। न रह निरगुना = अपने गुण या क्रिया के बिना नहीं रहता। बारहिं बार = द्वार द्वार (८) डिढ़ = दृढ़। मेरवौं = मिलाऊँ।

(९) बाउर = बावला, पागल।