का राजा हौं बरनौं तासू। सिंघलदीप आहि कैलासू॥
जो गा तहाँ भुलाना सोई। गा जुग बीति न बहुरा कोई॥
घर घर पदमिनि छतिसौ जाती। सदा बसंत दिवस औ राती॥
जेहि जेहि बरन फूल फुलवारी। तेहि तेहि बरन सुगंध सो नारी॥
गंध्रवसेन तहाँ बड़ राजा। अछरिन्ह महँ इंद्रासन साजा॥
सो पदमावति तेहि कर बारी। जो सब दीप माँह उजियारी॥
चहूँ खंड के बर जो ओनाहीं। गरबहि राजा बोलै नाहीं॥
उअत सूर जस देखिय, चाँद छपै तेहि धूप।
ऐसे सवै जाहिं छपि, पदमावति के रूप॥४॥
सुनि रवि नावँ रतन भा राता। पंडित फेरि उहै कहु बाता॥
तैं सुरंग मूरत वह कही। चित महँ लागि चित्र होइ रही॥
जनु होइ सुरुज, आइ मन बसी। सब घट पूरि हिये परगसी॥
अब हौं सुरुज, चाँद वह छाया। जल बिनु मीन रकत बिनु काया॥
किरिन करा भा प्रेम अँकूरू। जौं ससि सरग, मिलौं होइ सूरू॥
सहसौ करा रूप मन भूला। जहँ जहँ दीठ कँवल जनु फूला॥
तहाँ भौंर जिउ कँवला गंधी। भइ ससि राहु केरि रिनि बंधी॥
तीनि लोक चौदह खँड, सबै परै मोहिं सूझि।
पेम छाँड़ि नहिं लोन किछु, जो देखा मन बूझि॥५॥
पेम सुनत मन भूल न राजा। कठिन पेम, सिर देइ तौ छाजा॥
पेम फाँद जो परा न छूटा। जोउ दीन्ह पै फाँद न टूटा॥
गिरगिट छंद धरै दुख तेता। खन खन पीत, रात, खन सेता॥
जान पुछार जो भा बनवासी। रोंव रोंव परे फँद नगवासी॥
पाँखन्ह फिर फिरि परा सो फाँदू। उड़ि न सकै, अरुझा भा बाँदू॥
'मुयों मुयों' अहनिसि चिल्लाई। ओही रोस नागन्ह धै खाई॥
पंडुक, सुआ, कंक वह चीन्हा। जेहिं गिउ परा चाहि जिउ दीन्हा॥
तीतिर गिउ जो फाँद है, नित्ति पुकारै दोख।
सो कित हँकरि फाँद गिज, ( मेलै) कि मारे होइ मोख॥६॥
राजै लीन्ह ऊबि कै साँसा। ऐस बोल जिनि बोलु निरासा॥
भलेहि पेम है कठिन दुहेला। दुइ जग तरा पेम जेइ खेला॥
दुख भीतर जो पेम मधु रखा। जग नहिं मरन सहै जो चाखा॥
जो नहिं सीस पेम पथ लावा। सो प्रिथिमी महँ काहेक आवा॥
(३) उतंगू = उतुंग, ऊँचा। किलकिला = जल के ऊपर मछली के
लिये मँड़रानेवाला एक जलपक्षी। होनी = बात, व्यवहार। (४) अछरी = अप्सरा। ओताही = झुकते हैं। (५) करा = कला। लोन = सुंदर।
१. यह पद एशियाटिक सोसाइटी बंगाल से प्रकाशित पदमावती में है।
(६) छंद = रूपरचना। पुछार = मयूर, मोर। नगवासी = नागों का फंदा