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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२२५

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नखशिख खंड

नाभिकुंड सो मलय समीरू। समुद भँवर जस भँवै गँभीरू॥
बहुतै भँवर बवंडर भए। पहुँचि न सके सरग कहें गए॥
चंदन माँझ कुरंगिनि खोजू। दर्द को पाउ, को राजा भोजू॥
को ओहि लागि हिवंचल सीझा। का कहँ लिखी, ऐस को रीझा॥
तीवइ कँवल सूगंध सरीरू। समद लहरि सोहै तन चीरू॥
भूलहीं रतन पाट के झोंपा। साजि मैन आंस का पर कोपा?॥
अबहि सो अहै कँवल कै करी। न जनौ कौन भौंर कहें धरी॥

वेधि रहा जग बासना परिमल मद सुगंध।
तेहि अरघानि भौंर सब लुवुधे तजहि न बंध॥ १९॥

बरनों नितँब लंक कै सोभा। औ गज गवन देखि मन लोभा॥
जुरे जंघ सोभा अति पाए। केरा खंभ फेरि जनु लाए॥
कवँल चरन अति रात बिसेखी। रहैं पाट पर, पुहुमि न देखो॥
देवता हाथ हाथ पर लेहीं। जहँ पगु धरै सीस तहँ देहीं॥
माथे भाग कोउ अस पावा। चरन कँवल लेइ सीस चढ़ावा॥
चूरा चाँद सुरुज उजियारा। पायल बीच करह झनकारा॥
अनवट बिछिया नखत तराई। पहुँचि सकै पायँन ताई॥

बरनि सिंगार न जानेउँ, नखशिख जैस अभोग।
तस जग किछुइ न पाएऊँ, उपमा देउँ ओहि जोग॥२०॥



(१९) भँवै = घूमता है, चक्कर खाता है । खोजू = खोज, खुर का पड़ा हुआ चिह्न। हिवंचल = हिमालय। तीवइ = स्त्री (पूरब तिवई)। समुद लहरि = लहरिया कपड़ा। झोंपा - गुच्छा। अरघानी = आम्राण, महँक। (२०) फेरि = उलटकर। लाए = गलाए।