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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२२४

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पदमावत

पेट परत जनु चंदन लावा। कुहँकुहँ केसर बरन सुहावा॥
खीर अहार न कर सुकुवाँरा। पान फूल के रहै अधारा॥
साम भुअंगिनि रोमावली। नाभी निकसि कँवल कहँ चली॥
आइ दुऔ नारँग बिच भई। देखि मयूर ठमकि रहि गई॥
मनहुँ चढ़ी भौरन्ह कै पाँती। चंदन खाँभ वास कै माती॥
की कालिंदी बिरह सताई। चलि पयाग अरइल बिच आई॥
नाभि कुंभ बिच वारानसी। सौंह को होइ, मीचु तहँ बसी॥

सिर करवत, तन करसी बहुत सीझ तेहि आस।
बहुत धूम घुट घुटि मुए, उतर न देइ निरास॥१६॥

बैरिनि पीठि लीन्हि वह पाछे। जन फिर चली अपछरा काछे॥
मलयागिरि कै पीठि सँवारी। बेनी नागिनि चढ़ी जो कारी॥
लहुरैं देति पीठि जनु चढ़ी। चीर ओहार केंचुली मढ़ी॥
दहुँ का कहँ अस वेनी कीन्हीं। चंदन बास भुअंगै लीन्हीं॥
किरसुन करा चढ़ा ओहि माथे। तब तौ छूट अब छुटै न नाथे॥
कारे कवँल गहे मुख देखा। ससि पाछे जनु राहू बिसेखा॥
को देखै पावै वह नागू। सो देखै जेहि के सिर भागू॥

पन्नग पंकज मुख गहे, खंजन तहाँ बईठ।
छत्र, सिंघासन, राज, धन, ताकहँ होइ जो डीठ॥१७॥

लंक पुहुमि अस आहि न काहू। केहरि कहौं न ओहि सरि ताहू॥
बसा लंक बरनै जग झीनी। तेहि तें अधिक लंक वह खीनी॥
परिहँस पियर भए तेहि बसा। लिए डंक लोगन्ह कह डसा॥
मानहुँ नाल खंड दुइ भए दुहुँ बिच लंक तार रहि गए॥
हिय के मुरे चलै वह तागा। पैग देत कित सहि सक लागा॥
छुद्रघंटिका मोहहि राजा। इंद्र अखाड़ आइ जनु बाजा॥
मानहुँ बीन गहे कामिनी। गावहिं सबै राग रागिनी॥

सिंघ न जीता लंक सरि, हारि लीन्ह बनवासु।
तेहि रिस मानुस रकत पिय, खाइ मारि कै माँसु॥१८॥


डिब्बा। बारी = (क) कन्या, (ख) बगीचा। (१६) अरइल = प्रयाग में वह स्थान जहाँ जमुना गंगा से मिलती है। करवत = आरा (सं॰ करपत्र)। करसी = (सं॰ करीष) उपले या कंडे की आग जिसमें शरीर सिझाना बड़ा तप समझा जाता था, जैसे—गनिका, गीध बधिक हरिपुर गए लै करसो प्रयाग कब सोधे।—तुलसी। (१७) करा = कला से, अपने तेज से। कारे = साँप। पन्नग पंकज...बईठ = सर्प के सिर या कमल पर बैठे खंजन को देखने से राज्य मिलता है, ऐसा ज्योतिष में लिखा है। पहुमि = पृथिवी (प्रा॰ पुहुवी)। बसा = बरट, भिड़, बरैं। परिहँस = ईर्ष्या, डाह (इस अर्थ में ही अवध में बोला जाता है)। मानहुँ नाल...गए-कमल के नाल को तोड़ने पर दोनों खंडों के बीच कुछ महीन महीन सूत लगे रह जाते हैं। तागा = सूत। छुद्रघंटिका = घूँघरूदार करधनी।