पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२२९

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(१२) जोगी खंड


तजा राज, राजा भा जोगी। औ किंगरी कर गहेउ वियोगी॥
तन विसँभर मन वाउर लटा। अरुझा पेम, परी सिर जटा॥
चंद्र वदन औ चंदन देहा। भसम चढ़ाइ कीन्ह तन खेंहा॥
मेखल, सिंघी, चक्र धँधारी। जोगवाट, रुदराछ, अधारी॥
कंथा पहिरि दंड कर गहा। सिद्ध होइ कहाँ गोरख कहा॥
मुद्रा स्रवन, कंठ जपमाला। कर उपदान, काँध बघछाला॥
पाँवरि पाँव, दीन्ह सिर छाता। खप्पर लीन्ह भेंस करि राता॥

चला भुगुति माँगै कहँ, साधि कया तप जोंग।
सिद्ध होंइ पदमावति, जेहि कर हिये वियोग॥१॥

गनक कहहिं गति गौन न आजू। दिन लेइ चलहु, होइ सिध काजू॥
पेम पंथ दिन घरी न देखा। तब देखै जब होइ सरेखा॥
जेहि तन पेम कहाँ तेहि माँसू। कया न रकत, नेन नहिं आँसू॥
पंडित भूल, न जानै चालू। जीउ लेत दिन पूछ न कालू॥
सती कि वौरी पूछिंहि पाँडे। औ घर पैठि कि सैंते भाँड़े॥
मरै जो चले गंग गति लेई। तेहि दिन कहाँ घरी को देई?॥
मैं घर बार कहाँ कर पावा। घरी के आपन, अंत परावा॥

हौं रे पथिक पखेरू, जेहि वन मोर निबाहु।
खेलि चला तेहि बन कहँ, तुम अपने घर जाहु॥२॥

चहुँ दिसि आन साँटिया फेरी। भै कटकाई राजा केरी॥
जावत अहहिं सकल अरकाना। साँभर लेहु, दूरि है जाना॥
सिंघलदीप जाइ अब चाहा। मोल न पाउब जहाँ बेसाहा॥

 

(१) किगरी=छोटी सारंगी या चिकारा। लटा—शिथिल, क्षीणा। मेखल—मेखला। सिंघी—सींग का वाजा जो फूँकने से बजता है। धँधारी = एक में गुछी हुई लोहे की पतली कड़ियाँ जिनमें उलझे हुए डोरे या कौड़ी को गोरखपंथी साधू अ्रदभूत रीति से निकाला करते हैं, गौरखधंधा। अधारी = भोला जो दोहरा होता है। मुद्रा = स्फटिक का कुंडल जिसे गोरखपंथी कान में बहुत बड़ा छेद करके पहनते हैं। उदपान = कमंडलू। पाँवरि = खड़ाऊ। राता गेरुआ। (२) तब देखै = तब तो देखे, तब न देख सकता है। सरेखा = चतुर, होशवाला। सैते = सँभालती या सहेजती है।

(३) आन = आज्ञा, घोषणा (प्रा० आण्णा)। साँटिया = डौड़ीवाला। कटकाई = दलवल के साथ चलने की तैयारी। अरकाना = अरकान, दौलत, सरदार। साँभर = संवल, कलेऊ। साँठि = पूजी। तुंरय = तुरग। गुदर।

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