पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५५
बोहित खंड

दस महँ एक जाइ कोइ करम, घरम, तप, नेम।
बोहित पार होइ जब, तवहि कुसल औ खेम॥३॥

राजै कहा कीन्ह मैं पेमा। जहाँ पेम कहूँ कूसल खेमा॥
तुम्ह खेवहु जौ खेवै पारहु। जैसे आपु तरहु मोहि तारहु॥
मोहि कुसल कर सोचन ओता। कुसल होत जौ जनम न होता॥
घरती सरग जाँत पट दोऊ। जो तेहि बिच जिउ राख न कोऊ॥
हौं अब कुसल एक पै माँगौं। पेम पंथ सत बाँधि न खाँगों॥
जौ सत हिय तौ नयनहिं दीया। समुद न डरै पैठि मरजीया॥
तहँ लगि हेरौं समुद ढेंढोरी। जहँ लगि रतन पदारथ जोरी॥

सप्त पतार खोजि के काढ़ौं वेद गरंथ।
सात सरग चढ़ि धावौं, पदमावति जेंहि पंथ॥४॥


 

(४) ओता = उतना। पट = पल्ला। खाँगौं = कसर करूँ। मरजीया = जी पर खेलकर विकट स्थानों से व्यापार की वस्तु (जैसे, मोती, शिला-जतु, कस्तुरी) लानेवाले, जिवकिया। ढेंढोरी = छानकर।