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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२३८

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(१५) सात समुद्र खंड

सायर तरै हिये सत पूरा। जौ जिउ सत, कायर पुनि सूरा॥
तेइ सत बोहित कुरी चलाए। तेइ सत पवन पंख जनु लाए॥
सत साथी, सत कर संसारू। सत्त खेइ लेइ लावै पारू॥
सत्त ताक सब आगू पाछू। जहँ जहँ मगरमच्छ औ काछु॥
उठै लहरि जनु ठाढ़ पहारा। चढ़ै सरग औ परै पतारा॥
डोलहिं बोहित लहरैं खाहीं। खिन तर होहिं, खिनहिं उपराहीं॥
राजै सो सत हिरदै वाँघा। जेहि सत टेकि करै गिरि काँधा॥

खार समूद सो नाँघा, आए समुद जहूँ खीर॥
मिले समुद वै तसातौ, बेहर बेहर नीर॥१॥

खीर समुद का वरनौं नीरू। सेत सरूप, पियत जस खीरू॥
उलथहिं मानिक, मोती, हीरा। दरव देखि मन होइ न थीरा॥
मनुआ चाह दरब औ भोगू। पंथ भुलाइ बिनासै जोगू॥
जोगी होइ सो मनहिं सेंभारै। दरव हाथ कर समुद पवारै॥
दरब लेइ सोई जो राजा। जो जोगी तेहिके केहि काजा॥
पंथहि पंथ दरब रिपु होई। ठग, बटपार, चोर सेग सोई॥
पंथी सो जो दरब सौं रूसे। दरब समेटि बहुत अस मूसे॥

खीर मद सो नाँघा, आए समुद दधि माँह।
जो हैं नेह क बाउर, तिन्‍ह कहँ धूप न छाँह॥२॥

दधि समुद्र देखत तस दाधा। पेम क लुबुध दगध पै साधा॥
पेम जो दाधा धनि वह जीऊ। दधि जमाइ मथि काढ़े घीऊ॥
दधि एक बूंद जाम सब खीरू। काँजी बंद बिनसि होइ नीरू॥
साँस डाड़ि मन मथनी गाढ़ी। हिये चोट बिन फूट ते साढ़ी॥
जेहि जिउ पेम चंदन तेहि आगी। पेम बिहून फिरै डर भागी॥
पेम कै आगि जरै कोई। दुख तेहि कर न अँविरथा होई॥
जो जानै सत आपहु जारै। निसत हिये सत करै न पारै॥

दधि समुद्र पुनि पार भे, पेमहि कहा सँभार?॥
भाव पानी सिर परै, भावै परै अँगार॥३॥


 

(१) सायर = सागर। कुरी = समूह। बेहर बेहर = अलग अलग। (२) मतुआ = मनुष्य या मन। पधारै = फेंके। रूसे = विरक्‍त हुए। मूसे = मूसे गए, ठगे नेए। (३) दगध साधा = दाह सहने का अभ्यास कर लेता है। दाधा = जला। डाँड़ि = डाँड़ी, डोरी। अँबरिथा = वृथा, निष्फल निसत = सत्यविहीन। भावै = चाहे।