पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६५
पदमावती-वियोग-खंड खंड

नैन ज्यों चक्र फिरै चहुँ ओरा। वरजै धाय, समाहिं न कोरा॥
कहेसि पेम जौं उपना, बारी। बाँधु सत्त, मन डोल न भारी॥
जेहि जिउ महँ होइ सत्त पहारू। पर पहार बाँकै वारू॥
सती जो जरै पेम सत लागी। जौं सत हिये तौ सीतल आगी॥
जोबन चाँद जो चौदस करा। बिरह के चिनगी सो पुनि जरा॥
पौन बाँध सो जोगी जती। काम बाँध सो कामिनि सती॥
आव बसंत फूल फुलवारी। देववार सब जैहें वारीं॥

तुम्ह पुनि जाहु बसंत लेइ, पूजि मनावहु देव।
जीउ पाइ जग जनम है, पीउ पाइ कै सेव॥६॥

जब लगि अवधि आइ नियराई। दिन जुग जुग विरहिनि कहँ जाई॥
भूख नींद निसि दिन गै दोऊ। हियै मारि जस कलपै कोऊ॥
रावँ रोबेँ जनु लागहि चाँटे। सूत सूत वेधहिं जन काँटे॥
दगधि कराह जरे जस घीऊ। वेगि न आव मलयगिरि पीऊ॥
कौन देव कहँ जाइ के परसौं। जेहि सुमेरु हिय लाइय कर सौं॥
गुपुति जो फूलि साँस परगठे। अब होइ सुभर दहहि हम्ह घटै॥
भा सँजोग जो रे भा जरना। भोगहि भए भोगि का करना॥

जोबन चंचल ढीठ है, करे निकाजै काज।
धनि कुलवंति जो कुल धरै, कै जोबन मन लाज॥७॥


 

(६) कोरा = कोर, कोना। पहारू = पाहरू, रक्षक। (७) परसों = स्पर्श करूँ, पूजन करूँ(?)। जेहि कर सौं = जिससे उस सुमेर को हाथ स हृदय में लगाऊं। होइ सुभर = अधिक भरकर, उमड़कर। घटै = हमारे शरीर को।

निकाजै = निकम्मा ही। जोबत = यौवनावस्था में।