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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२४९

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पदमावती सुआ भेंट खंड

सो नग देखि हींछा भइ मोरी। है यह रतन पदार्थ जोरी॥
है ससि जोग इहै पै भानू। तहाँ तुम्हार मैं कीन्ह बखानू॥

कहाँ रतन रतनागर, कंचन कहाँ सुमेर।
दैव जो जोरी दुहुँ लिखी, मिलै सो कौनहु फेर॥३॥

सुनत विरह चिनगी ओहि परी। रतन पाव जौं कंचन करी॥
कठित पेम विरहा दुख भारी। राज छाँड़ि भा जोगि भिखारी।
मालति लागि भौंर जस होई। होइ वाउर निसरा बुधि खोई॥
कहेसि पतंग होइ धनि लेऊँ। सिंघलदीप जाइ जिउ देऊँ॥
पुनि ओहि कोउ न छाँड़ अकेला। सोरह सहस कुंवर भए चेला॥
और गने को संग सहाई?। महादेव मढ़ मेला जाई॥
सूरज पुरुष दरस के ताईं। चितवै चंद चकोर के नाई॥

तुम्ह बारी रस जोंग जेहि, कँवलहि जस अरधानि।
तस सूरुज परगास कै, भौंर मिलाएउँ आनि॥४॥

हीरामन जो कही यह वाता। सुनिकै रतन पदारथ राता॥
जस सूरुज देखे होइ ओपा। तस भा बिरह कामदल कोपा॥
सुनि के जोगी केर बखानू। पदमावत मन भा अभिमानू॥
कंचन करी न काँचहि लोभा। जौं मग होइ पाव तव सोभा॥
कंचन जौं कसिए कै ताता। तब जानिय दहुँ पीत कि राता॥
नग कर मरम सो जड़िया जाना। उड़े जो अस नग देखि बखाता॥
को अब हाथ सिंघ मुख घालै। को यह बात पिता सौं चाले॥

सरग इंद्र डरि काँप, बासुकि डरै पतार।
कहाँ सो असबर प्रिथिमी, मोहि जोग संसार॥

तू रानी ससि कंचन करा। वह नग रतन सुर तिरमरा॥
विरह बजागि बीच का कोई। आगि जो छूवे जाई जरि सोई॥
आगि बुझाइ परे जल गाढ़े। वह न बुझाइ आपु हो वाढ़ै॥
बिरह के आगि सूर जरि काँपा। रातिहि दिवस जरै ओहि तापा॥
खिनहिं सरग, खिन जाइ पतारा। थिर न रहै एहि आगि अपारा॥
धनि सो जीउ दगध इमि सहै। अकसर जरे, न दूसर कहै॥
सुलगि सुलगि भीतर होइ सावाँ। परगट होइ न कहै दुख नावां॥


रतनागर = र॒त्नाकर, समुद्र। चिनगी = चिनगारी। कंचन करी = स्वर्णकलिका। लागि = लिये, निमित्त। मेलार = पहुँचा। दरस के ताईं = दर्शन के लिये। (५) राता = अनुरक्त हुआ। ओप = दमक। ताता = गरम। पोत कि राता = पीला कि लाल, पीला सोना मध्यम और लाल चोखा माना जाता हैं। (६) करा = कला, किरन। बजागि = वज्राग्नि। अकसर = अकेला। सावाँ = श्याम, साँवला।