पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६९
पदमावती सुआ भेंट खंड


भिंगी ओहि पांखि प लेई। एकहि बार छीनि जिउ देई॥
ताकहँ गुरू करै असि माया। नव औतार देइ, नव काया॥
होइ अमर जो मरि के जीया। भौंर कवँल मिल कै मधु पीया॥

आवै ऋतु बसंत जब तब मधुकर तव बासु।
जोगी जोग जो इमि करै सिद्धि समापत तासु॥९॥


 

(६) फनिंग = फनगा, फतिंगा। समापत = पूर्ण।