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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२७४

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पदमावत

जब लगि गुरु हौं अहा न चीन्हा। कोटि अँतरपट बीचहि दीन्हा॥
जब चीन्हा तब और न कोई। तन मन जिउ जीवन सब सोई॥
हौं हौं करत धोख इतराहीं। जय भा सिद्ध कहाँ परछाहीं? ॥
मारै गुरू, कि गुरू जियावै। और को मार? मरै सब आवै॥
सूरी मेलु, हस्ति करु चूरू। हौं नहिं जानौं; जाने गूरू॥
गुरू हस्ति पर चढ़ा सो पेखा। जगत जो नास्ति, नास्ति पै देखा॥
अंध मीन जस जल महँ धावा। जल जीवन चल दिस्टि न आवा॥
गुरु मोरे मोरे हिये, दिए तुरंगम ठाठ।
भीतर करहिं डोलावै, बाहर नाचै काठ॥ ७ ॥
सो पदमावति गुरु हौं चेला। जोग तंत जेहि कारन खेला॥
तजि वह बार न जानौं दूजा। जेहि दिन मिलै, जातरा पूजा॥
जीउ काढ़ि भुइँ धरौं लिलाटा। ओहि कहँ देउँ हिये महँ पाटा; ॥
को मोहिं ओहि छुआवै पाया। नव अवतार, देइ नइ काया॥
जीउ चाहि जो अधिक पियारी। माँगै जीउ देउँ बलिहारी॥
माँगै सीस, देउँ सह गोवा। अधिक तरौं जौं मारै जीवा॥
अपने जिउ कर लोभ न मोहीं। पेम बार होइ माँगौं ओही॥
दरसन ओहि कर दिया जस, हौं सो भिखरि पतंग।
जो करवत सिर सारै, मरत न मोरौं अंग॥ ८ ॥
पदमावति कँवला ससि जोती। हँसैं फूल, रोवै सब मोती॥
बरजा पितै हँसी औ रोजू। लागे दूत, होइ निति खोजू॥
जबहिं सुरुज कहँ लागा राहू। तबहिं कँवल मन भएउ अगाहू॥
बिरह अगस्त जो बिसमौ उएऊ। सरवर हरष सूखि सब गएऊ॥
परगट ढारि सकै नहिं आँसू। घटि घटि माँसु गुपुत होइ नासू॥
जस दिन माँझ रैनि होइ आई। बिगसत कँवल गएउ मुरझाई॥
राता बदन गएउ होइ सेता। भँवत भँवर रहि गए अचेता॥
चित्त जो चिता कीन्ह धनि, रोवै रोवँ समेत।
सहस साल सहि, आहि भरि, मुरुछि परी, गा चेत॥ ९ ॥


(७) अहा = था। अँतरपट = परदा, व्यवधान। इतराहीं = इतराते हैं, गर्व करते हैं। करु चूरू = चूर करे, पीस डाले। पै = ही। जल जीवन... आवा = जल सा यह जीवन चंचल है, यह दिखाई नहीं देता है। ठाठ = रचना, ढाँचा। काठ = जड़ वस्तु, शरीर। (८) जातरा पूजा = यात्रा सफल हुई। पाटा = सिंहासन। करवत सिर सारै = सिर पर आरा चलावे। (९) रोजू = रोदन, रोना। खाजू चौकसी। अगस्त = एक नक्षत्र, जैसे, उदित अगस्त पंथ जल सोखा। बिसमौ = बिना समय के। भंवत भंवर...अचेता = डोलते हुए भौंरे अर्थात् पुतलियाँ निश्चल हो गई।