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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२७५

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गंधर्वसेन मंत्री खंड

पदमावति सँग सखी सयानी। गनत नखत सब रैनि बिहानी॥
जानहि मरम कँवल कर कोईं। देखि बिथा बिरहिन कै रोई॥
बिरहा कठिन काल कै कला। बिरह न सहै, काल बरु भला॥
काल काढ़ि जिउ लेइ सिधारा। बिरह काल मारे पर मारा॥
बिरह आगि पर मेले आगी। बिरह घाव पर घाव बजागी॥
बिरह बान पर बान पसारा। बिरह रोग पर रोग सँवारा॥
बिरह साल पर साल नवेला। बिरह काल पर काल दुहेला॥
तन रावन होइ सर चढ़, बिरह भयउ हनुवंत।
जारे ऊपर जारै चित मन करि भसमंत॥ १० ॥
कोइ कुमोद पसारहिं पाया। कोइ मलयागिरि छिरकहि काया॥
कोइ मुख सीतल नीर चुआवै। कोइ अंचल सौं पौन डोलावै॥
कोइ मुख अमृत आनि निचोवा। जनु बिष दीन्ह, अधिक धनि सोवा॥
जोवहिं साँस खिनहि खिन सखी। कब जिउ फिरै पौन पर पँखी।
बिरह काल होइ हिये पईठा। जीउ काढ़ि लै हाथ बईठा॥
खिनहिं मौन बाँधे, खिन खोला। गही जीभ मुख आव न बोला॥
खिनहिं बेझि कै बानन्ह मारा। कँपि कँपि नारि मरै बेकरारा॥
कैसेहु बिरह न छाँड़ै भा ससि गहन गरास।
नखत चहूँ दिसि रोवहिं, अंधर धरति अकास॥ ११ ॥
घरी चाहि इमि गहन गरासी। पुनि विधि हिये जोति परगासी॥
निसँस ऊमि भरि लीन्हेसि साँसा। भा अधार, जीवन कै आासा॥
बिनवहिं सखी, छूट ससि राहू। तुम्हरी जोति जोति सब काहू॥
तू ससि बदन जगत उजियारी। केइ हरि लीन्ह, कीन्ह अँधियारी? ॥
तु गजगामिनि गरब गहेली। अब कस आस छाँड़ तू बेली॥
तू हरिलंक हराए केहरि। अब कित हारि करति है हियहरि॥
तू कोकिल बैनी जग मोहा। केइ व्याधा होइ गहा निछोहा? ॥
कँवल कली तू पदमिनि! गइ निसि भयउ बिहान।
अबहूुँ, न संपुट खोलसि, जब रे उआ जग भानु॥ १२ ॥
भानु नावँ सुनि कँवल बिगासा। फिर कै भौंर लीन्ह मधु बासा॥
सरद चंद मुख जवहिं उघेली। खंजन नैन उठै करि केली॥
बिरह न बोल आव मुख ताई। मरि मरि बोल जीउ बरियाई॥


(१०) कोईं = कुमुदिनी, यहाँ सखियाँ। कला कै काल = काल के रूप। नवेला = नया । (११) पौनपर = पवन के परवाला अर्थात् वायु रूप। बेकरारा = बेचैन बेकरार। अंधर = अँधेरा। (१२) तू हरिलंक...केहरि = तूने सिंह से कटि छीनकर उसे हराया। हारि करति है = निराश होती है, हिम्मत हारती है। निछोहा = निष्ठुर। (१३) फिरि केै भौंर...मधु बासा = भौंरो ने फिर मधुवास लिया अर्थात् काली पुतलियाँ खुलीं। बरियाई = जबरदस्ती।