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पदमावत

दिन दस बिनु जल सूखि बिधंसा। पुनि सोइ सरवर, सोई हंसा॥

मिलहि जो बिछुरे साजन, अंकम भेटि अहंत।
तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहँत॥३॥

चढ़ा असाढ़, गगन घन गाजा। साजा बिरह दंद दल बाजा॥
धूम, साम, धौरे घन धाए। सेत धजा बग पांति देखाए॥
खड़ग बीजु चमकै चहँ ओरा। बंद बान बरसहिं घन घोरा॥
ओनई घटा आइ चहँ फेरी। कंत! उबारु मदन हौं घेरी॥
दादूर मोर कोकिला, पीऊ। गिरै बीज, घट रहै न जीऊ॥
पुष्य नखत सिर ऊपर पावा। हौं बिन नाह, मँदिर को छावा?
अद्रा लाग लागि भुइँ लेई। मोहिं बिन पिउ को आदर देई?

जिन्ह घर कंता ते सूखी, तिन्ह गारौ औ गर्व।
कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्व॥४॥

सावन बरस मेह अति पानी। भरनि परी, हौं बिरह झुरानी॥
लाग पुरनबसु पीउ न देखा। भइ बाउरि, कहँ कंत सरेखा॥
रकत कै आँसु परहिं भुइँ टूटी। रेंगि चलौं जस बीरबहूटी॥
सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला। हरियरि भूमि, कुसुंभी चोला॥
हिय हिंडोल अस डोलै मोरा। बिरह झलाइ देइ झकझोरा॥
बाट असूझ अथाह गंभीरी। जिउ बाउर, भा फिरै भंभीरी॥
जग जल बूड़ जहाँ लगि ताकी। मोरि नाव खेवक बिनु थाकी॥

परबत समुद अगम बिच, बीहड़ घन बनढाँख।
किमि के भेंटौं कंत तुम्ह? ना मोहि पाँव न पाँख॥५॥

भा भादो दूभर अति भारी। कैसे भरौं रैनि अँधियारी॥
मँदिर सून पिउ अनतै बसा। सेज नागिनी फिरि फिरि डसा॥
रहौं अकेलि गहे एक पाटी। नैन पसारि मरौं हिय फाटी॥
चमक बीजु घन गरजि तरासा। बिरह काल होइ जीउ गरासा॥
बरसै मघा झकोरि भकोरी। मोर दुइ नैन चवै जस ओरी॥
धनि सूखै भरे भादौं माहाँ। अबहँ न पाएन्हि सोचेन्हि नाहाँ॥
पुरबा लाग भूमि जल पूरी। पाक जवास भई तस झूरी॥


पलुहंत = पल्लवित होते हैं, पनपते हैं। (४) गाजा=गरजा। धूम=धूमले रंग के। धौरे धवल, सफेद। ओनई = झकी। लेई लागि = खेतों में लेवा लगा, खेत में पानी भर गए। गारौ= गौरव, अभिमान (प्राकृत-गारव, 'आ च गौरवे')। (५) मेह = मेघ। भरनि परी : खेतों में भरनी लगी। सरेख = चतुर। भँभीरी एक प्रकार का फतिंगा जो संध्या के समय बरसात में आकाश में उड़ता दिखाई पड़ता है। (६) दूभर=भारी कठिन। भरौं = काट, बिताऊँ; जैसे-नहर जनम भरब बरु जाई-तुलसी। अनत = अन्यत्र। तरासा = डराता है। ओरी= ओलती। पुरबा = एक नक्षत्र।