पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(३०) नागमती वियोंग खंड

नागमती चितउर पथ हेरा। पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा॥
नागर काहु नारि बस परा। तेइ मोर पिउ मोसौं हरा॥
सुआ काल होइ लेइगा पीऊ। पिउ नहिं जात, जात बरु जीऊ॥
भएउ नरायन बावँन करा। राज करत राजा बलि खरा॥
करन पास लीन्हेउ कै छूँदू। विप्र रूप धरि झिलमिल इंदु॥
मानत भोग गोपिचंद भोगी। लेइ अपसवा जलंधर जोगी॥
लेइगा कृस्नहि गरुड़ अलोपी। कठिन बिछोह, जियहिं किमि गोपी?
सारस जोरी कौन हरि, मारि बियाधा लीन्ह?
झुरि झुरि पींजर हौं भई, बिरह काल मोहि दीन्ह॥१॥
पिउ बियोग अस बाउर जीऊ। पपिहा निति बोले 'पिऊ पीऊ'।
अधिक काम दाधै सो रामा। हरि लेइ सुवा गएउ पिउ नामा॥
बिरह बान तस लाग न डोली। रकत पसीज, भीजि गइ चोलो॥
सूखा हिया, हार भा भारी। हरे हरे प्रान तहिं सब नारी॥
खन एक आव पेट महँ! साँसा। खनहिं जाइ जिउ, होइ निरासा॥
पवन डोलावहि, सीचहिं चोला। पहर एक समुझहिं मख बोला॥
प्रान पयान होत को राखा? को सुनाव पीतम कै भाखा?
आजि जो मारै बिरह कै, आगि उठे तेहि लागि।
हंस जो रहा सरीर महँ, पाँख जरा, गा भागि॥२॥
पाट महादेइ! हिये न हारू। समुझि जीउ, चित चेतु सँभारू॥
भोर कवल सँग होइ मेरावा। सँवरि नेह मालति पहँ आवा॥
पपिहै स्वाती सौं जस प्रीती। टेकू पियास, बाँधु मन थीती।
धरतिहि जैस गगन सौं नेहा। पलटि आव बरषा ऋतु मेहा॥
पुनि बसंत ऋतु आव नवेली। सो रस, सो मधुकर, सो बोली॥
जिनि अस जीव करसित बारी। यह तरिवर पुनि उठिहि सँवारी॥


(१) पथ हेरा = रास्ता देखती है। नागर = नायक। बावँन करा = वामन रूप। छरा=छला। करन = राजा कर्ण। छंदुः=छलछंद, धूर्तता। झिलमिल = कवच (सीकड़ों का)। अपसवा = चल दिया। पीजर = पंजर, ठठरी। (२) बाउर = बावला। हरे हरे-धीरे धीरे। नारी = नाड़ी। चोला = शरीर। पहर एक...बोला=इतना अस्पष्ट बोल निकलता है कि मतलब समझने में पहरों लग जाते हैं। हंस हंस और जीव। (३) पाट महादेइ=पट्टमहादेवी, पटरानी। मेरावा = मिलाप। टेकु पियास = प्यास सह। बाँधु मन थीती = मन में स्थिरता बाँध। जिनि = मत।