पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६३
लक्ष्मी समुद्र खंड


भुकती साँठि गाँठि जो करै। साँकर परे सोइ उपकरै॥
जेहि तन पंख, जाइ जहँ ताका। पैग पहार होइ जौ थाका॥
लछमी दीन्‍ह रहा मोहिं बीरा। भरि कै रतन पदारथ हीरा॥
काढ़ि एक नग वेगि भँजावा। बहुरी लच्छि, फेरि दिन पावा॥
दरव भरोस करै जिनि कोई। साँभर सोइ गाँठि जो होई॥

जोरि कटक पुनि राजा, घर कहँ कीन्‍ह पयान।
दिवसहि भानु अलोप भा, वासुकि इंद्र सकान॥८॥


 

भुकती = बहुत सी, अधिक। साँकर परे = संकट पड़ते पर। उपकरै = उपकार करती है; काम आती है। साँभर = संवल, राह का खर्चे। सकन = डरा।