सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६७
चित्तौर आगमन खंड

कहि दुख कथा जो रैनि बिहानी। भएउ भोर जहूँ पदमिनि रानी॥
भानु देख ससि बदन मलीना। कँवल नैन राते, तनु खीना॥
रैनि नखति गनि कीन्ह बिहानू। विकल भई देखा जब भानू॥
सूर हँसै; ससि रोई डफारा। टूँट आँसु जनु नखतन्ह मारा॥
रहै न राखी होइ निसाँसी। तहँवा जाहु जहाँ निसि बासी॥
हौं के नेह कुआँ महँ मेली। सींचै लागि झुरानी बेली॥
नैन रहे होइ रहट के घरी। भरी ते ढारी,छूँछी भरी॥

सुभर सरोवर हंस चल, घटतहि गए बिछोइ।
कँवल न प्रीतम परिहरैं, सूखि पंक बरु होइ॥ १० ॥

पदमावति तुइँ जीउ पराना। जिउ तें जगत पियार न आना॥
तुइ जिमि केवल बसौ हिय माहाँ। हौं होइ अलि बेधा तोहि पाहाँ॥
मालति कली भंवर जौ पावा। सो तजि आन फूल कित भावा? ॥
मैं हौं सिंघल कै पदमिनी। सरि न पूज जंबू नागिनी॥
हौं सुगंध निरमल उजियारी। वह विषभरी डेरावनि कारी॥
मोरी बाँस भंवर ढंग लागहिं। ओहि देखत मानुस डरि भागहिं॥
हौं पुरुषन्ह कैं चितवन दीठी। जेहिके जिउ आंस नहीं पईठि॥

ऊँचे ठाँव जो बैठे, करे न नीचहि संग।
जहँ सौ नागिनि हिरके, करिया करै सो अंग ॥११॥

पलुही नागमती के बारी। सोने फूल फूलि फुलवारी॥
जावत पंखि रहे सब दहे। सबै पंखि बोलत गहगहे॥
सारिउँ सुवा महरि कोकिला। रहसत आाइ पपीहा मिला॥
हारिल सबद, महोख सोहावा। काग कुराहर करि सख पावा॥
भोग विलास कीन्ह कै फेरा। बिहँसहिं, रहसहिं, काहिं बसेरा॥
नाचहिं पंडुक मोर परेवा। विफल न जाइ काहुकै सेवा॥
होइ उजियार सूर जस तपे। खूसट मुख न देखावै छपे॥

संग सहेली नागमति, आापनि बारी माहँ।
फूल चुनहिं, फल तुरहरहसि कूदि सुख छाँह॥ १२ ॥


(१०) देख = देखा। भानु = (क) सूर्य, (ख) रत्नसेन। डफारा = ढाढ़ मारती है। मारा = माला। कुआँ मह मेली = मुझे तो कुएँ में डाल दिया, अर्थात् किनारे कर दिया। झुरान = सूखी। घरी = घड़ा। सुभर = भरा हुआ। (११) बेधा तोहि पाहाँ = तेरे पास उलझ गया हूँ। डेरावनि = डरावनी। हिरकै = सटे। करिया = काला। (१२) पलुही = पल्लवित हुई, पनपी। गहगहे = आनंदपूर्वक। कुराहर = कोलाहल। जस = जैसे ही। खूसट = उल्लू। तूरहिं = तोड़ती हैं।