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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३४८

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पदमावत

बाजैं पाँच सबद निति, सिद्धि बखानहिं भाँट।
छतिस कूरि, पट दरसन, आइ जुरे ओहिते पाट॥६॥

सब दिन राजा दान दिआवा। भर्ड निसि, नागमती पहँ आवा॥
भुगमती मुख फेरि बईठी। सौंह न करें पुरुष सौं दीठी॥
ग्रीषम जरत छाड़ि जो जाई। सो मुख कौन देखावै आई? ॥
जबहिं जरे परबत बन लागे। उठी झार पंखी उड़ि भागे॥
जब साखा देखें औ छाहाँ। को नहि रहसि पसा रै बाहाँ॥
को नहि हरषि बैंठ तेहि डारा। को नहि करै केलि कुरिहारा? ॥
तू जोगी होइगा वैरागी! हौं जरि छार भएएँ तोहि लागी॥

काह हँसौ तुम मोसौं, किएउ और सौं नेह।
तुम्ह मुख चमकै बीजुरी मोहि मुख बरिसै मेंह॥७॥

नागमती तू पहिलि विवाही। कठिन प्रीति दाहै जस दाही॥
बहुतै दिनों आव जो पीऊ। धनि न मिलै धनि पाहन जीऊ॥
पाहन लोह पोढ़ जग दोऊ। तेउ मिलहिं जौ होइ, बिछोऊ॥
भलेहि सेत गंगाजल दीठा। जमन जो साम, नीर अति मीठा॥
काह भएउ तन दिस दस दहा। औ बरषा सिर ऊपर अहा॥
कोइ केहु पास आस के हैरा। धनि ओहि दरस निरास न फेरा॥
कंठ लाई कै नारि मनाई। जरी जो बेलि सींचि पलुहाई॥

फरे सहस साखा होई, दारिऊँ, दाख, जँभीर।
सबै पंखि मिलि आइ जोहारे, लौटि उहै भइ भीर॥८॥

जौ भा मेर भएउ रँग राता। नागमती हँसि पूछी बाता॥
कहहु, कंत। ओहि देस लोभाने। कस धनि मिली, भोग कस माने॥
जो पदमावति सुठि होइ लोनी। मोरे रूप कि सरवरि होनी? ॥
जहाँ राधिका गोपिन्ह माहाँ। चंद्रावलि सरि पूज न छाहाँ॥
भंवर पुरुष अस रहै न राखा। तजै दाख, महुआ रस चाखा॥
तजि नागेसर फूल सोहावा। कवँल बिसैधहिं सौं मन लावा॥
जो अन्हवाइ भरै अरगजा। तौहु बिसायँध वह नहिं तजा॥

काह कहौं हौ तोसौं, किछु न हिये तोहि भाव।
इहाँ बात मुख मोसौं, उहाँ जीउ औहि ठाँव॥९॥


पाँच शबद = पंच शब्द, पाँच बाजे तंत्री, ताल, झाँझ, नगाड़ा और तुरही। छतिस कूरि = छतीसों कुल के क्षत्रिय। पट दरसन = (लक्षणा से) छह शास्त्रों के वक्ता। (७) दिआवा = दिलाया। कुरिहारा = कलरव कोलाहल। (८) पोढ़ = दृढ़, मजबूत, कड़े। फरे सहस....भीर = अर्थात् नागमती में फिर यौवन श्री और रस आ गया और राजा के अंग भंग उससे मिले। (९) मेर = मेलमिलाप। लोनी = सुंदर। नागेसर = अर्थात नागमती। कँवल = अर्थात् पद्मावती। विसैंधा = बिसायंध गंधवाला, मछली की सी गंधवाला। भाव = प्रेम भाव।