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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३५७

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राघवचेतन देशनिकाला खंड

जो यह दुइज कल्हि कै होती। आजु तेज देखत ससि जोती॥
राघव दिस्टिबंध कल्हि खेला। सभा माँझ चेटक अस मेला॥[]
एहि कर गुरू चमारिनि लोना। सिखा काँवरू पाढ़न टोना॥
दुइज अमावस कहूँ जो देखावै। एक दिन राहु चाँद कहँ लावै॥

 राज बार अस गुनी न चाहिय जेहि टोना कै खोज॥
ऐहि चेटक औ विद्या छला जो राजा भोज॥ ३ ॥

 

राघव वैन जो कंचन रेखा। कसे बानि पीतर अस देखा॥
अज्ञा भई, रिसान नरेसू। मारहु नाहिं, निसारहु देसू॥
झूठ बोलि थिर रहै न राँचा। पंडित सोइ वेद मत साँचा॥
वेद वचन मुख साँच जो कहा। सो जुग जुड अहथिर होइ रहा॥
खोट रतन सोई फटकरै। केहि घर रतन जो दारिद हरै?॥
चहै लच्छि बाउर कवि सोई। जहँ, सुरसती लच्छि कित होई?॥
कविता सँग दारिद मतिभंगी। काँटै कूँट पुहुप कै संगी॥

 कवि तौ चेला, बिधि गुरू, सीप सेवाती बुंद।
तेहि मानुष कै आस का, जो मरजिया समुंद ॥ ॥

 

 एहि रे बात पदमावति सुनी। देश निसारा राघव गुनी॥
ज्ञान दिस्टि धनि अगम विचारा। भल न कीन्ह अस गुनी निसारा॥
जेइ जाखिनी पूजि ससि काढ़ा। सूर के ठाँव करै पुनि ठाढ़ा॥
कवि कै जीभ खड़ग हरद्वानी। एक दिसि आगि, दुसर दिसि पानी॥
जिन अनुगुति कारे सुख भोरे। जस बहुते, अपजस होइ थोरे॥
रानी राघव बेगि हँकारा। सूर गहन भा लेहु उतारा॥
बाम्हन जहाँ दच्छिना पावा। सरग जाइ जौ होइ बोलावा॥

 आवा राघव। चेतन, धौराहर के पास।
ऐस न जाना ते हियै, बिजुरी बसै अकास ॥ ५ ॥

 

काल्हि के = कल को। दिस्टिबंध = इंद्रजाल, जादू। चेटक = माया। चमारिन लोना = कामरूप की प्रसिद्ध जादूगरनी लोना चमारी। एक दिन राहु चाँद कहँ लावे = (क) जब चाहे चंद्रग्रहण कर दे, (ख) पद्मावती के कारण बादशाह की चढ़ाई का संकेत भी मिलता है। (४) फटकरै = फटक दे। मतिभंगी = बुद्धि भ्रष्ट करनेवाला। तेहि मानुष कै आस का = उसको मनुष्य की क्या आशा करनी चाहिए? (५) अगम = आगम, परिणाम। जोखिती = यक्षिणी। सूर के ठाँव ठाढ़ा = सूर्य की जगह दूसरा सूर्य खड़ा कर दे। (राजा पर बादशाह को चढ़ा लाने का इशारा है।) हरद्वानी = हरद्वान की तलवार प्रसिद्ध थी। अजुगति = अनहोनी बात अयुक्त बात। भोरे = भूलकर। जस बहुते थोरे = यश बहुत करने से मिलता है, अपयश थोड़े ही में मिलता है। उतारा = निछावर किया हुआ दान।

२२
  1. पाठांतर--पंडित न होइ, काँवरू चेला।