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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३६१

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राघवचेतन दिल्ली गमन खंड

भीख भिखारी दीजिए, का बाम्हन का भाटँ।
अज्ञा भई हँकारहु, धरती धरै लिलाट॥३॥

 

 राघव चेतन हुत जो निरासा। ततखत बेगि बोलावा पासा॥
सीस नाइ कै दीन्ह असीसा। चमकत नग कंकन कर दीसा॥
अज्ञा भइ पुनि राघव पाहाँ। तू मंगन कंकन का बाहाँ॥
राघव फेरि सीस भुइँ धरा। जुग जुग राज भानु कै करा॥
पदमिनि सिंघलदीप के रानी। रतनसेन चितउरगढ़ आनी॥
कवँल न सरि पूजै तेहि बासा। रूप न पूजै चंद अकासा॥
जहाँ कवँल ससि सूर न पूजा। केहि सरि देउँ, और को दूजा? ॥

सोइ रानी संसार मनि दछिना कंकन दीन्ह।
अछरो रूप देखाइ कै जीउ झरोखे लीन्ह ॥ ४ ॥

 

 सुनि कै उतर साहि मन हँसा। जानहु बीजु चमकी परगसा।
काँच जोग जेहि कंचन पावा। मंगन ताहि सुमेरु चढ़ावा॥
नावँ भिखारि जीभ मुख बाँची। अबहु सँभारि बात कहु साँची॥
कहँ अस नारि जगत उपराहीं। जेहि के सरि सूरुज ससि नाहीं? ॥
जो पदमिनि सो मंदिर मोरे। सातौ दीप जहाँ कर जोरे।
सात दीप महँ चुनि चुनि आनी। सो मोरे सोरह सै रानी॥
जौ उन्ह कै देखसि एक दासो। देखि लीन होइ लीन बिलासी॥

चहूँ खंड हौं चक्कवै, जस रवि तपै अकास।
जो पदमिनि तौ मोरे, अछरी तौ कबिलास॥ ५ ॥

 

तुम बड राज छत्रपति भारी। अनु बाम्हन मैं अहाँ भिखारी॥
चारिउ खंड भोख कहँ बाजा। उदय अस्त तुम्ह ऐस न राजा॥
धरमराज औ सत कलि माहाँ। भूठ जो कहै जीभ केहि पाँहा ?॥
किछु जो चारी सब किछु उपराहीं। ते एहि जंबूदीपहिं, नाहीं!॥
पदमिनि, अंमृत, हंस, सदूरू। सिंघलदीप मिलहिं पै मूरू॥
सातौ दीप देखि हौं आवा। तब राघव चेतन कहवावा॥
आज्ञा होइ, न राखौं धोखा। कहौं सबै नारिन्ह गुन दोषा॥

 इहाँ हस्तिनी, संखिनी, औ चित्विनि बहु बास।
कहाँ पदमिनी पदुम सरि, भंवर फिरै जेहि पास? ॥ ६ ॥

 


(४) हुत = था। संसार मनि = जगत् में मणि के समान। (५) जेहि कंचन पावा = जिससे सोना पाया। नावँ भिखारि बाँची = भिखारी के नाम पर अर्थात तेरे मुँह में जीभ बची हुई है, खींच नहीं ली गई। लोन = लावण्य सौंदर्य। होइ लोन बिलासी = तू नमक की तरह गल जाय। चक्कवै = चक्रवर्ती। (६) अनु = और, फिर। भीख कहें = भिक्षा के लिये। बाजा = पहुँचता है, डटता है। उदय अस्त = उदयाचल से अस्ताचल तक। किछु जो चारि उपराहीं = जो चार चीजें सबसे ऊपर हैं। मूरू = मूल, असल। बहु बास = बहुत सी रहती है।