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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३६२

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(४०) स्त्रीभेद वर्णन खंड

पहिले कहौं हस्तिनी नारी। हस्ती कै परकीरति सारी॥
सिर औ पायँ सुभर गिउ छोटी। उर कै खीनि लंक कै मोटी॥
कुंभस्थल कुच मद उर माहीं। गयन गयंद ढाल जनु बाँही॥
दिस्टि न आवै आपन पीऊ। पुरुष पराए ऊपर जीऊ॥
भोजन बहुत बहुत रति चाऊ। अछवाई नहिं थोर बनाऊ॥
मद जस मंद बसाइ पसेऊ। औ बिसवासि छरै सब केऊ॥
डर और लाज न एकौ हिये। रहै जो राखे आँकुस दिये॥

गज गति चलै चहूँ दिसि चितवै लाए चोख।
कही हस्तिनी नारि यह सब हस्तिन्ह के दोख॥ १ ॥

 

 दूसरि कहौं संखिनी नारी। करै बहुत बल अलप अहारी॥
उर अति सुभर खीन अति लंका। गरब भरी मन करै न संका॥
बहुत रोष चाहै पिउ हना। भागे घाल न काहू गना॥
अपनै अलंकार ओहि भावा। देखि न सकै सिँगार परावा॥
सिंघ क चाल चल डग ढीली। रोवाँ बहुत जाँघ औ फीली॥
मोटि माँसु रुचि भोजन तासू। औ मुख आव बिसायँध बासू॥
दिस्टि तिरडुँही हेर न आगे। जनु मथवाह रहै सिर लागै॥

सेज मिलत स्वामी कहँ, लावै उर नखबान।
जेहि गुन सबै सिंघ के, सो संखिनि सुलतान! ॥ २ ॥

 

 तीसरि कहौं चित्रिनी नारी। महा चतुर रस प्रेम पियारी॥
रूप सुरूप सिंगार सवाई। अछरी जैसि रहै अछवाई॥
रोष न जाने हँसतामुखी। जेहि असि नारी कंत सो सुखी॥
अपने पिउ कै जानै पूजा। एक पुरुष तजि आान न दूजा॥
चंदबदनि रँग कुमुदिनि गौरी। चाल सोहाइ हंस कै जोरी॥


(१) अछवाई = सफाई। बनाऊ = बनाव सिंगार। बसाइ = दुर्गध करता है। चोख = चंचलता या नेत्र। (२) सुभर = भरा हुआ। चाहै पिउ होना = पति को कभी कभी मारने दौड़ती है। घाल न गना = कुछ नहीं समझती, पसंगे बराबर नहीं समझती। फीली = पिंडली। तरहुँड़ी = नीचा। हेर = देखती है। मथवाह = झालरदार पट्टी जो भड़कनेवाले घोड़ों के मत्थे पर इसलिये बाँध दी जाती है जिसमें वे इधर उधर की वस्तु सकें। जेहि सबै सिंघ के = कवि ने शायद शंखिनी के स्थान पर 'सिंघिनी' समझा है। (३) सवाई = अधिक। अछवाई = साफ निखरी।