खीर खाँड़ रुचि अलप अहारू। पान फूल तेहि अधिक पियारू॥
पदमिनि चाहि घाटि दुइ करा। और सबै गुन ओहि निरमरा॥
चित्रिनि जैस कुमुद रँग, सोइ बासना अंग।
पदमिनि सब चंदन असि, भंवर फिरहिं तेहि संग ॥ ३ ॥
चौथी कहौं पदमिनी नारी। पदुम गंध ससि दैउ सँवारी॥
पदमिनि जाति पदुम रँग ओही। पदुम बास, मधुकर सँग होहीं॥
ना सुठि लाँबो, ना सुठि छोटी। ना सुठि पातरि, ना सुठि मोटी॥
सोरह करा रँग ओहि बानी। सो, सुलतान! पदमिनी जानी॥
दीरघ चारि, चारि लघु सोई। सुभर चारि, चहुँ खीनौ होई॥
औ ससि बदन देखि सब मोहा। बाल मराल चलत गति सोहा॥
खीर अहार न कर सुकुवाँरी। पान फूल के रहै अधारी॥
सोरह करा सँपूरन, औ सोरहौ सिंगार।
अब ओहि भाँति कहत हौं, जस बरनै संसार॥ ४ ॥
प्रथम केस दीरघ मन मोहै। औ दीरघ अंगूरी कर सोहै॥
दीरघ नैन तीख तहँ देखा। दीरघ गीउ, कंठ तिनि रेखा॥
पुनि लघु दसन होहिं जनु हीरा। औ लघु कुच उत्तंग जँभीरा॥
लघु लिलाट दूइज परगासू। औ नाभी लघु, चंदन बासू॥
नासिक खीन खरग कै धारा। खीन लंक जनु केहरि हारा॥
खीन पेट जानहुँ नहिं आँता। खीन अधर बिद्रुम रँग राता॥
सुभर कपोल, देख मुख सोभा। सुभर नितंब देखि मन लोभा॥
सुभर कलाई अति बनी, सुभर जंघ, गज चाल॥
सोरह सिंगार बरनि कै, करहिं देवता लाल॥५॥
चाहि = अपेक्षा, बनिस्बत। घाटि = घटकर। करा = कला। बासना = बास, महकँ। (४) सुठि = खूब, बहुत। दीरघ चारि होइ = ये सोलह श्रृंगार के विभाग हैं। (५) दीरघ = लंबे। तीख = तीखे। तिनि = तीन। केहरि हारा = सिंह ने हार कर दी। आँता = अँतड़ी। सुभर = भरे हुए। लाल = लालसा