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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३६५

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पद्मावती रूपचर्चा खंड

बेनी छोरि झार जौ केसा। रैनि होइ जग दीपक लेसा॥
सिर हुँत बिसहर परे भुइँ बारा। सगरौ देस भएउ अँधियारा॥
सकपकाहिं बिष भरे पसारे। लहरि भरे लहकहिं अति कारे॥
जानहुँ लोटहिं चढ़े भुअंगा। वेधे बास मलयगिरि अंगा॥
लुरहि मुरहि जनु मानहि केली। नाग चढ़े मालति कै वेली॥
लहरैं देइ जनहुँ कांलिदी। फिर फिरि भँवर होइ चित बंदी॥
चँवर ढुरत आछै चहुँ पासा। भँवर न उड़हिं जो लुबुधे वासा॥

होइ अँधियार बाजु धन, लेपै जबहि चीर गहि झाँप।
केस नाग कित देख मैं, सँवरि सँवरि जिय काँप ॥ ४ ॥

 

 माँग जो मानिक सेंदुर रेखा। जनु बसंत राता जग देखा॥
कै पत्रावली पाटी पारी। औ रुचि चित्र विचित्र सँवारी॥
भए उरेह पुहुप सब नामा। जनु बग बिखरि रहे घन सामा॥
जमुना माँझ सुरसती मंगा। दुहू दिति रही तरंगिनि गंगा॥
सेंदुर रेख सो ऊपर राती। बीरबहूटिन्ह कै जसि पाँती॥
बलि देवता भए देखि सेंदूरु। पूजै माँग भोर उठि सूरू॥
भोर साँत रबि होइ जो राता। ओहि रेखा राता होइ गाता॥

 बेनी कारी पुहुप लेइ, निकसी जमुना आइ।
पूज इद्र आनद सौं, सेंदर सीस चढ़ाइ ॥ ५ ॥

 

दुइज लिलाट अधिक मनियारा। संकर देखि माथ तहँ धारा॥
यह निति दुइज जगत सब दीसा। जगत जोहारै देइ असीसा॥
ससि जो होइ नहिं सरवरि छाजे। होइ सो अमावस छपि मन लाजै॥
तिलक सँवारि जो चुन्नी रची। दुइज माँझ जानहुँ कचपची॥
ससि पर करवत सारा राहू। नखतन्ह भरा दीन्ह बड़ दाहू॥
पारस जोति लिलाटहि ओती। दिस्टि जो करै होइ तेहि जोती॥
सिरी जो रतन माँग बैठारा। जानहु गगन टूट निसि तारा॥

ससि औ सूर जो निरमल तेहि लिलाट के ओप।
निसि दिन दौरि न पूजहिं पुनि पुनि होहि अलोप॥ ६ ॥

 

(४) झार = झारती है। जग दीपक लेसा = रात समझकर लोग दीया जलाने लगते हैं। सिर हुत = सिर से। बिसहर = विषधर साँप। सकपकाहिं = हिलते डोलते हैं। लहकहिं = लहराते हैं झपटते हैं। लूरहिं = लोटते हैं। फिरि फिरी भँवर = पानी के भँवर में चक्कर खाकर। बंदी = कैदी, बँधुआ। ढुरत आछै = ढरता रहता है। झाँप = ढाँकती है। (५) पत्रावलि = पत्रभंग-रचना। पाटी = माँग के दोनों ओर बैठाए हुए बाल। उरेह = विचित्र सजावट। बग = बगला। पूजै = पूजन करता है। (६) मनियारा = कांतिमान सोहावना। चुन्नी = चमकी या सितारे जो माथे या कपोलों पर चिपकाए जाते हैं। पारस जोति = ऐसी जोति जिससे दूसरी वस्तु की ज्योति हो जाय। सिरी = श्री नाम का आभूषण। ओप = चमके। पूजहिं = बराबरी को पहुँचते हैं।