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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३६८

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पदमावत

स्त्रवन सुनह जो कुंदन सीपी। पहिरे कुंडल सिंघलदीपी॥
चाँद सुरज दुहुँ दिसि चमकाहीं। नखतन्ह भरे निरखि नहीं जाहीं॥
खिन खिन करहिं बीजू अस काँपा। अँवर मेघ महँ रहहिं न झाँपा।
सूक सनीचर दुहुँ दिसि मते। होहि निनार न स्त्रवनन्ह हुँते॥
काँपत रहहिं बोल जो बैना। स्त्रवनन्ह जौ लागहिं फिर नैना॥
जस जस बात सखिन्ह सौं सुना। दुहुँ दिसि करहिं सीस वै धुना॥
खूँट दुवौ अस दमकहि खूँटो। जनहु परै कचपचिया टूटी॥

वेद पुरान ग्रंथ जत, स्त्रवन, सुनत सिखि लीन्ह।
नाद विनोद राग रस बंधक स्त्रवन ओहि विधि दींन्ह ॥ १३ ॥

 

कँवल कपोल ओहि अस छाजै। और न काह दैउ अस साजै॥
पुहुप पंक रस अमिय सँवारे। सुरँग गेंद नारँग रतनारे॥
पुनि कपोल बाएँ तिल परा। सो तिल बिरह चिनगि कै करा॥
जो तिल देख जाइ जरि सोई। बाएँ दिस्टि काुह जिनि होई॥
जानहुँ भँबर पदुम पर टूटा। जीउ दीन्ह औ दिए न छूटा॥
देखत तिल नैनन्ह गा गाड़ी। और न सूझै सो तिल छाँड़ी॥
तेहि पर अलक मनि जरी डोला। छुवै सौ नागिनि सुरंग कपील॥

रच्छा करै मयूर वह, नाँधि न हिय कर लोट।
गहि रे जग को छुइ सकै, दुई पहार के ओट ॥ १४ ॥

 

 गीउ मयूर केरि जस ठाढ़ो। कुँदै फेरि कुँदेरै काढ़ो॥
धनि वह गीउ का बरनौं करा। बाँक तुरंग जनहुँ गहि परा॥
घिरिनि परेवा गीउ उठावा। चहै बोल तमचूर सुनाव॥
गीउ सुराही कै अस भई। अमिय पियाला कारन नई॥
पुनि तेहि ठाँव परी तिनि रेखा। तेइ सोइ ठाँव होइ जौ देखा॥
सुरुज किरिनि हुँत गिउ निरमली। देखे बेगि जाति हिय चली॥
कंचन तार सोइ जिउ भरा। साजि कँवल तेहि उपर धरा॥

नागिनि चढ़ी कँवल पर चढ़ि कै बैठ कमंठ।
कर पसार जो काल कहँ सो लागै ओहि कंठ॥१५॥

 

(१३) कुंदन सीपी = कुंदन की सीप (ताल के सीपों का आधा संपुट)। अंबर = वस्त्र। खूँट =कोना, ओर। खूँट = खूँट नाम का गहना। कचपचिया = कृत्तिका नक्षत्र। (१४) पुहुप पंक = फूल का कीचड या पराग। कै करा = के रूप समान। बाएँ दिस्टि होइ = किसी की दृष्टि बाई ओर न जाए क्योंकि वहाँ तिल है। गा गाड़ी = गड़ गया। दुइ पहार अर्थात् कुच। (१५) कुंदै = खराद पर। कुँदेरै = कुँदेरने। करा = कला, शोभा। घिरिनि परेवा = गिरहबाज कबूतर। तमचूर = मुर्गा। तेइ सोइ ठाऊँ देखा = जो उसे देखता है वह उसी जगह ठक रह जाता है। जाति हिय चली = हृदय में बस जाती है। नागिनी = अर्थात केश। कर्मठ = कछुए के समान पीठ या खोपड़ी।