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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३६९

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पद्मावती रूपचर्चा खंड

कनक दंड भुज बनी कलाई। डाँड़ी कँवल फेरि जनु लाई॥
चंदन खाँभहि भुजा सँवारी। जानहुँ मेलि कँवल पौनारी॥
तेहि डाड़ी सँग कँवल हथोरी। एक कँवल कै दूनौ जोरी॥
सहजहि जानहु मेहँदी रची। मुकुताहल लीन्हें जनु घुँघची॥
करपल्लव जो हथोरिन्ह साथा। पे सब रकत भरे तेहि हाथा॥
देखत हिया काढ़ि जनू लेई। हिया काढ़ि कै जाइ न देई॥
कनक अँगूठी औ नग जरी। वह हत्यारिनि नखतन्ह भरी॥

जैसी भुजा कलाई, तेहि विधि जाइ न भाखि।
ककन हाथ होइ जहँ, तहँ दरपन का साखि? ॥ १६ ॥

 

हिया थार कुच कनक कचोरा। जानहुँ दुवौ सिरिफल जोरा॥
एक पाट बै दूनौ राजा। साम छत्र दूनहुँ सिर छाजा॥
जानहूँ, दोउ लटू एक साथा। जग भा लटू चढ़ै नहिं हाथा॥
पातर पेट आहि जनु पूरी। पान अधार फूल अस फूरी॥
रोमावलि ऊपर लटू घुमा। जानहु दोउ साम औ रूमा॥
अलग भुअंगिनि तेहि पर लाटा। हिय घर एक खेल दुइ गोटा॥
बान पगार उठे कुच दोऊ। नाँघि सरन्ह उन्ह पाव कोउ॥

कैसहु नवहि न नाए, जोबन गरव उठान।
जो पहिले कर लावै सो पाछे रति मान ॥ १७ ॥

 

भृंग लंक जनु माँझ न लागा। दुइ खंड नलिन माँझ तनु तागा॥
जब फिरि चली देख मैं पाछे। अछरी इंद्रलोक जनु काछे॥
जबहि चली मन भा पछिताऊ। अबहूँ दिस्टि लागि ओही ठाऊँ॥
मुठरी लाजि छपीं गति ओही। भई अलोप न परगट होहीं॥
हंस लजाइ मानसर खेले। हस्ती लाजि धूरि सिर मेले॥
जगत बहुत तिय देखी महूँ। उदय अस्त अस नारि न कहूँ॥
महिमंडल तौ ऐसि न कोई। ब्रह्मंडल जौ होइ तो होई॥

बरनेउ नारि जहाँ लगि, दिस्टि झरोखे आइ।
और जो अही अदिस्ट धनि, सो कछ बरनि न जइ ॥ १८ ॥

 

का धनि कहौं जैसि सुकुमारा। फूल के छुए होइ बेकरारा॥


(१६) डाँड़ी कँवल लाई = कमलनाल उलटकर रखा हो। कर पलव्व= उंगली। साखि = साक्षी। कंकन हाथ साखि = हाथ कंगन को आरसी क्या? (१७) कचोरा = कटोरा। पाट = सिंहासन। साम छत्र = अर्थात् कुच का श्याम अग्रभाग। लटु = लट्टू। फूरी = फूली। साम = साम सीरिया का मुल्क जो अरब के उत्तर है। घर = खाना कोठा। गोटा = गोटी। पगार = प्राकार या परकोटे पर। (१८)देख = देखा। खेले = चले गए। ब्रह्ममँडल = स्वर्ग। (१९) बेकरारा =बेचैन।