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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३९७

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बादशाह भोज खंड

जत परकार रसोइ बखानी। तत सब भई पानि सौं सानी॥
पानी मूल परिख जौ कोई। पानी बिना सवाद न होई॥
अमृत पान सह अमृत आना। पानी सौं घट रहै पराना॥
पानी दूध औ पानी घीऊ। पानि घटैं, घट रहै न जीऊ॥
पानी माँझ समानी जोती। पानिहि उपजै मानिक मोती॥
पानिहि सौं सब निरमल कला। पानी छुए होइ निरमला॥
सो पानी मन गरब न करई। सीस नाइ खाले पग धरई॥

मुहमद नीर गंभीर जो भरे सो मिले समुंद।
भरै ते भारी होइ रहे, छूछें बाजहिं दुंद ॥ ११ ॥

 



(११) जत = जितनी। तत = उतनी। पानी मूल...कोई = जो कोई विचार कर देखे तो पानी ही सबका मूल है। अमृत पान = अमृतपान के लिये। दुंद = ठक ठक।