पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४०

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अब 'पद्मावत' की पूर्वार्ध कथा के संबंध में एक और प्रश्न यह होता है कि वह जायसी द्वारा कल्पित है अथवा जायसी के पहले से कहानी के रूप में जनसाधारण के बीच प्रचलित चली आती है। उत्तर भारत में, विशेषतः अवध में, 'पद्मिनी रानी और हीरामन सूए' की कहानी अबतक प्रायः उसी रूप में कही जाती है जिस रूप में जायसी ने उसका वर्णन किया है। जायसी इतिहासविज्ञ थे इससे उन्होंने रत्नसेन, अलाउद्दीन आदि नाम दिए हैं, पर कहानी कहनेवाले नाम नहीं लेते हैं; केवल यही कहते हैं कि 'एक राजा था', 'दिल्ली का एक बादशाह था', इत्यादि। यह कहानी बीच बीच में गा गाकर कही जाती है। जैसे, राजा की पहली रानी जब दर्पण में अपना मुँह देखती है तब सूए से पूछती है

देस देस तुम फिरौ हो सुग्रटा! मोरे रूप और कहु कोई?

सूआ उत्तर देता है--

काह बखानौं सिंहल के रानी। तोरे रूप भरै सब पानी।

इसी प्रकार 'वाला लखन देव' आदि की और रसात्मक कहानियाँ अवध में प्रचलित हैं जो बीच बीच में गा गाकर कही जाती हैं।

इस संबंध में हमारा अनुमान है कि जायसी ने प्रचलित कहानी को ही लेकर सूक्ष्म व्योरों की मनोहर कल्पना करके, उसे काव्य का सुंदर स्वरूप दिया है। इस मनोहर कहानी को कई लोगों ने काव्य के रूप में बाँधा। हुसैन गजनवी ने 'किस्सए पद्मावत' नाम का एक फारसी काव्य लिखा। सन् १६५२ ई० में रायगोविंद मुंशी ने पद्मावती की कहानी फारसी गद्य में 'तुकफतुल कुलूब' के नाम से लिखी। उसके पीछे मीर जियाउद्दीन 'इव्रत' और गुलाम अली 'इशरत' ने मिलकर सन् १७६६ ई० में उर्दू शेरों में इस कहानी को लिखा। यह कहा जा चुका है कि मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी 'पदमावत' सन् १५२० ई० में लिखी थी।

'पदमावत' की प्रेमपद्धति

'पदमावत' की जो आख्यायिका ऊपर दी जा चुकी है उससे स्पष्ट है कि वह एक प्रेम कहानी है। अब संक्षेप में यह देखना चाहिए कि कवियों में दांपत्य प्रेम का याविर्भाव वर्णन करने की जो प्रणालियाँ प्रचलित हैं उनमें से 'पदमावत' में वरिणत प्रेम किसके अंतर्गत पाता है।

(१) सबसे पहले उस प्रेम को लीजिए जो आदिकाव्य रामायण में दिखाया गया है। इसका विकास विवाहसंबंध हो जाने के पीछे और पूर्ण उत्कर्ष जीवन की विकट स्थितियों में दिखाई पड़ता है। राम के वन जाने की तैयारी के साथ ही सीता के प्रेम का स्फुरण होता है; सीताहरण होने पर राम के प्रेम की कांति सहसा फूटती हुई दिखाई पड़ती है। वन के जीवन में इस पारस्परिक प्रेम की नंदविधायिनी शक्ति लक्षित है और लंका की चढ़ाई में इसका तेज, साहस और पौरुष। यह प्रेम अत्यंत स्वाभाविक, शुद्ध और निर्मल है। यह विलासिता या कामकता के रूप में हमारे सामने नहीं आता बल्कि मनुष्य जीवन के बीच एक मानसिक