पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४१

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शक्ति के रूप में दिखाई पड़ता है। उभय पक्ष में सम होने पर भी नायक पक्ष में यह कर्तव्यबुद्धि द्वारा कुछ संयत सा दिखाई पड़ता है।

(२) दूसरे प्रकार का प्रेम विवाह के पूर्व का होता है, विवाह जिसका फलस्वरूप होता है। इसमें नायक नायिका संसारक्षेत्र में घूमते फिरते हुए कहीं जैसे उपवन, नदीतट, वीथी इत्यादि में--एक दूसरे को देख मोहित होते हैं और दोनों में प्रीति हो जाती है। अधिकतर नायक की ओर से नायकिा को प्राप्ति का प्रयत्न होता है। इसी प्रयत्नकाल में संयोग और विप्रलंभ दोनों के अवसरों का संनिवेश रहता है और विवाह हो जाने पर प्रायः कथा की समाप्ति हो जाती है। इसमें कहीं बाहर घूमते फिरते साक्षात्कार होता है, इससे मनुष्य के आदिम प्राकृतिक जीवन की स्वाभाविकता बनी रहती है। अभिज्ञान शाकुंतल, विक्रमोर्वशीय आदि की कथा इसी प्रकार की है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने सीता और राम के प्रेम का प्रारंभ विवाह से पूर्व दिखाने के लिये ही उनका जनक की वाटिका में परस्पर साक्षात्कार कराया है। पर साक्षात्कार और विवाह के बीच के थोड़े से अवकाश में परशुरामवाले झमेले को छोड़ प्रयत्न का कोई विस्तार दिखाई नहीं पड़ता। अतः रामकथा को इस दूसरे प्रकार की प्रेमकथा का स्वरूप न प्राप्त हो सका।

(३) तीसरे प्रकार के प्रेम का उदय प्रायः राजाओं के अंत:पुर, उद्यान आदि के भीतर भोगविलास या रंग रहस्य के रूप में दिखाया जाता है, जिसमें सपत्नियों के द्वेष, विदूषक आदि के हास परिहास और राजाओं को स्त्रैणता आदि का दृश्य होता है। उत्तरकाल के सस्कृत नाटकों में इसी प्रकार के पौरुषहीन, निःसार और विलासमय प्रेम का प्रायः वर्णन हुआ है, जैसे रत्नावली, प्रियदर्शिका, कपरमंजरी इत्यादि में। इसमें नायक को कहीं वन, पर्वत आदि के बीच नहीं जाना पड़ा है; वह घर के भीतर ही लुकता छिपता, चौकड़ी भरता दिखाया गया है।

(४) चौथे प्रकार का वह प्रेम है जो गुणश्रवण चित्रदर्शन, स्वप्नदर्शन आदि से बैठे बिठाए उत्पन्न होता है और नायक या नायिका को संयोग के लिये प्रयत्नवान् करता है। उपा और अनिरुद्ध का प्रेम इसी प्रकार का समझिए जिसमें प्रयत्न स्त्री जाति की ओर से होने के कारण कुछ अधिक विस्तार या उत्कर्ष नहीं प्राप्त कर सका है। पर स्त्रियों का प्रयत्न भी यह विस्तार या उत्कर्ष प्राप्त कर सकता है इसकी सूचना भारतेंदु ने 'पगन में छाले पर', नाँघबे को नाले परे तऊ लाल, लाले परे रावरे दरस को, के द्वारा दिया है।

इन चार प्रकार के प्रेमों का वर्णन नए और पुराने भारतीय साहित्य में है। ध्यान देने को बात यह है कि विरह की व्याकुलता और असह्य वेदना स्त्रियों के मत्थे अधिक मढ़ी गई है। प्रेम के वेग को मात्रा स्त्रियों में अधिक दिखाई गई है। नायक के दिन दिन क्षीण होने, विरहताप में भस्म होने, सूखकर ठठरी होने, के वर्णन में कवियों का जी उतना नहीं लगा है। बात यह है कि स्त्रियों की शृंगारचेष्टा वर्णन करने में पुरुषों को जो आनंद आता है, वह पुरुषों की दशा का वर्णन करने में नहीं। इसी से स्त्रियों का विरहवर्णन हिंदी काव्य का एक प्रधान अंग ही बन गया। ऋतुवर्णन तो केवल इसी को बदौलत रह गया।