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पदमावत

बिगसा कँवल सरग निति, जनहुँ लौकि गइ बीजु।
ओहि राहु भा भानुहि, राघव मनहिं पतीजू॥ २० ॥

 

अति विचित्र देखा सो ठाढ़ी। चित कै चित्र, लीन्ह जिउ काढ़ी॥
सिंघ लंक, कुंभस्थल जोरू। आँकुस नाग, महाउत मोरू॥
तेहि ऊपर भा कँवल बिगासू। फिरि अलि लीन्ह पुहुप मधु बासू॥
दुइ खंजन बिच बैठेउ सूझा। दुइज क चाँद धनुक लेइ ऊआ॥
मिरिग देखाइ गवन फिरि किया। ससि भा नाग, सूर भा दिया॥
सुठि ऊँचे देखत वह उचका। दिस्टि पहुँचि, कर पहुँचि न सका॥
पहुँच बिहून दिस्टि कित भई?। गति न सका, देखत वह गई॥

राघव! हेरत जिउ गएउ, कित आछत जो असाध॥
यह तन राख पाँख कै सकै न, केहि अपराध?॥ २१ ॥

 

राघव सुनत सीस भुइँ धरा। जुग जुग राज भानु कै करा॥
उहे कला, वह रूप बिसेखी। निसचै तुम्ह पदमावति देखी॥
केहरि लंक, कुंभस्थल हिया। गीउ मयूर, अलक बेधिया॥
कँवल बदन औ बास सरीरू। खंजन नयन, नासिका कीरू॥
भौंह धनुक, ससि दुइज लिलाटू। सब रानिन्ह ऊपर ओहि पाटू॥
सोई मिरिग देखाइ जो गएऊ। बेनी नाग, दिया चित भएऊ॥
दरपन महँ देखी परछाहीं। सो मूरति, भीतर जिउ नाहीं ॥

सबै सिंगार बनी धनि, अब सोई मति कीज।
अलक जौ लटके अधर पर सो गहि कै रस लीज॥ २२ ॥

 




चमक उठी, दिखाई पड़ गई। (२१) चित कै चित्र = चित्त या हृदय में अपना चित्र पैठाकर। कुंभस्थल जारू = हाथी के उठे हुए मस्तकों का जोड़ा (अर्थात् दोनों कुच)। आँकुस नाग = साँपों (अर्थात् बाल की लटों) का अकुश। मोरू = मयूर। सिरिग = अर्थात् मृगनयनी पद्मावती। गबन फिरि किया = पीछे फिरकर चली गई। ससि भा नाग = उसके पीछे फिरने से चंद्रमा के स्थान पर नाग हो गया, अर्थात् मुख के स्थान पर वेणी दिखाई पड़ी। सूर भा दिया = उस नाग को देखते ही सूर्य (बादशाह) दीपक के समान तेजहीन हो गया (ऐसा कहा जाता है कि साँप के सामने दीपक की लौ झिलमिलाने लगती है)। पहुँच बिहूँन कित भई? = जहाँ पहुँच ही नहीं हो सकती वहाँ दृष्टि क्यों जाती है? हेरत जिउ गएउ = देखते हो मेरा जीव चला गया। कित आछत जो असाध = जो वश में नहीं था वह रहता कैसे? यह तन अपराध = यह मिट्टी का शरीर पख लगाकर क्यों नहीं जा सकता; इसने क्या अपराध किया है? (२२) बेधिया = बेध करनेवाला अकुश। ओहि = उसका। दिया चित भएउ = वह तुम्हारा चित्र था जो नाग के सामने दीपक के समान तेजहीन हो गया। मति कीज = ऐसी सलाह या युक्ति कीजिए। अलक रस लीज = साँप की तरह जो लटें हैं उन्हें पकड़कर अधर रस लीजिए (राजा को पकड़ने का इशारा करता है)।