पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२७
रत्नसेन बंधन खंड

पानि पवन कहँ आस करेई। सो जिउ बधिक साँस भर देई॥
माँगत पानि नागि लेइ धावा। मुँगरी एक आनि सिर लावा॥
पानि पवन तुइ पिया सो पिया। अब को आनि देइ पानीया॥
तब चितउर जिउ रहा न तोरे। बादसाह है सिर पर मोरे॥
जबहि हँकारै है उठि चलना। सकती करै होइ कर मलना॥
करै सो मीत गाँढ़ बँदि जहाँ। पान फूल पहुँचावै तहाँ॥

जब अँजल मुँह, सोवा; समुद न सँवरा जागि।
अब धरि काढ़ि मच्छ जिमि, पानी माँगति आागि॥ ६ ॥

 

पुनि चलि दुइ जन पूछै आए। ओउ सुठि दगध आइ देखराए॥
तुइ मरपुरी न कबहूँ देखी। हाड़ जो बिथुरै देखि न लेखी॥
जाना नहिं कि होब अस महूँ। खोजे खोज न पाउब कहूँ॥
अब हम्ह उतर देह, रे देवा। कौने गरब न मानेसि सेवा?॥
तोहि अस बहुत गाड़ि खनि मूँदे। बहुरि न निकसि बार होइ देखूँ॥
जो जस हँसा तैसे रोवा। खेलत हँसत अभय भुइँ सोवा॥
जस अपने मुहँ काढ़े धूवाँ। मेलेसि आनि नरक के कूआँ॥

जरसि मरसि अब बाँधा, तैस लाग तेहि दोख।
अबहूँ मागुँ पदमिनी, जौ चाहसि भा मोख ॥ ७ ॥

 

पूछहिं बहुत, न बोला राजा। लीन्हेसि जीउ मीचु कर साजा[१]
खनि गड़वा चरनन्ह देइ राखा। नित उठि दगध होहिं नौ लाखा॥
ठाँव सो साँकर औ अँधियारा। दूसर करवट लेइ न पारा॥
बीछी साँप आनि तहँ मेला। बाँका आइ छुआवहि हेला॥
धरहि, सँड़ासन्ह, छूटै नारी। राति दिवस दुख पहुँचै भारी॥
जो दुख कठिन न सहै पहारू। सो अँगवा मानुष सिर भारू॥
जे सिर परै आइ सो सहै। किछु न बसाइ, काह सौं कहै?॥

दुख जारै, दुख भूँजै, दुख खोवै सब लाज।
गाजहु चाहि अधिक दुख, दुखी जान जेहि बाज॥ ८ ॥

 



साँस भर = साँस भर रहने के लिये। पानीया = पानी। उजि रहा = जी में यह बात नहीं रही कि। सकती = बल। जब अंजल मुँह सोवा = जब तक अन्न जल मुँह में पड़ता रहा तब तक सोया किया। (७) मरपुरी = यमपुरी। हाड़ जो लेखी = बिखरी हुई हड्डियों को देखकर भी तुझे उसका चेत न हुआ। महूँ... = मैं भी। खोज = पता। बार होइ खूँदै = अपने द्वार पर पैर न रखा। धूवाँ = गर्व या क्रोध की बात। तस = ऐसा। माँगु = बुला भेज। (८) गडवा = गड्ढा। चरनन्ह देइ राखा = पैरों को गड्ढे में गाड़ दिया। बाँका = धरकारों का टेढ़ा औजार जिससे वे बाँस छीलते हैं। हेला = डोम। सँड़ास = ससी, जिससे पकड़कर गरम बटलोई उतारते हैं। गाजहु चाहि = बज्र से भी बढ़कर। बाज = पड़ता है।

  1. पाठांतर--पूछहिं बहुत न राजा बोला। दिहे केबार, न कैसेहु खोला॥